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हर पिता को जरूरत अपने भीतर छिपे ‘धृतराष्ट्र’ से बचने की

जिन दिनों स्कूल खुले होते हैं, उन दिनों आपने देखा होगा कि कई माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने के नाम पर बस का इंतजार करते रहते हैं। इनके थुलथुल बच्चों को देखकर उनके माता-पिता पर दया आती है। अब छुटि्टयों के दिनों में ऐसे अभिभावक मॉल या बाजार में बच्चांे के साथ मिल जाते होंगे। अपने अभिभावकों की तरफ से पूरी तरह से लाड़-दुलार में पलते-बढ़ते इन बच्चों को ‘सिंथेटिक संतान’ कहना अतिशयोक्ति न होगा।

वे माता-पिता कैसे हैं, जो अपने बच्चों का बचपन छीनने का काम कर रहे हैं। हालांकि बात जरा कटु है, लेकिन फिर भी मैं इन माता-पिता को ही बच्चों का ‘असली दुश्मन’ कहना चाहूंगा, जो अपने बच्चों को बड़ा करने में इतने ‘मशगूल’ हो जाते हैं कि देखते ही देखते बच्चा दिव्यांग की तरह हो जाता है। ऐसे बच्चे जो न एक किलोमीटर चल पाते हैं और न ही 25 मीटर तैर पाते हैं। और तो और, पांच फीट की ऊंचाई से कूदने में भी इन्हें डर लगता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर आखिर क्या करेंगे?

बच्चों का लालन-पालन अच्छे से होना चाहिए, इसमें कोई दो मत नहीं, पर इसमें समय-पालन, नियम-पालन और वचन-पालन न हो, तो परिवार तंगहाली की तरफ बढ़ता जाता है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आजकल सुखी परिवारों में ‘सिंथेटिक संतानें’ जन्म ले रही हैं। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर इन संतानों से देश का भविष्य किस तरह से उज्ज्वल बन पाएगा? हर पिता को अपने भीतर छिपे ‘धृतराष्ट्र’ से बचने की जरूरत है। इसी तरह हर माता को अपने भीतर छिपी ‘कैकेयी’ से बचने की तैयारी रखनी चाहिए।

डाइनिंग टेबल पर भोजन के दौरान गंभीर विषयों पर बातचीत महत्वपूर्ण होती है। डाइनिंग टेबल भी एक यूनिवर्सिटी की तरह ही है। इंटरनेट और टीवी से चिपकी संतानें भविष्य में बहुत-सी समस्याएं खड़ी कर सकती हैं, इसका ध्यान रखना होगा।

जरूरत ‘भोग विवेक’ की बेशक, त्याग का स्थान ऊंचा है, परंतु भोग किसी भी मायने में कमतर नहीं है। भोग जीवन में अपरिहार्य है। इसे टालना असंभव है। तो क्या किया जाए? आज मानव को जरूरत है ‘भोग विवेक' की। लेकिन भोग विलास के बावजूद जीवन में एक सूत्र सदैव याद रखना चाहिए- रोटी का एक टुकड़ा दूसरे के लिए। इंसान जब किसी अनजाने इंसान को देने के लिए अपनी रोटी के टुकड़े करता है, तब पूरी मानवता एकमेव हो जाती है। अपनी रोटी के टुकड़े कर दूसरे को देने वाला इंसान किसी पर उपकार नहीं करता, क्योंकि देने का आनंद बहुत ही अनोखा होता है। जीवन में एक बार तो इंसान को देने के आनंद का स्वाद चखना ही चाहिए। इसके बाद उसका जीवन अपने-आप ही मधुर बनता जाएगा।

परायी भाषा, दूसरा आदमी…

टीएस इलियट कहते हैं कि इंसान दूसरी भाषा को धाराप्रवाह बोलने लगे तो उसी भाषा में विचारने भी लगता है। परायी भाषा बोलते समय वह ऐसा लगता है, मानो वह कोई दूसरा ही आदमी हो। यही दूसरा आदमी ही आसक्ति है। पर जब मन साफ होता है, तब इसके भीतर ही रहने वाला अच्छा आदमी उसके हृदय पर कब्जा कर लेता है। सूरदास, तुलसीदास, कबीर को छोड़कर वॉल्ट व्हीटमेन, पाब्लो नेरुदा और रॉबर्ट फ्रास्ट की कृतियों को पढ़कर समझना मुश्किल है। अपने बच्चे को फर्राटेदार अंग्रेजी में बोलते सुनकर उसे अपनी मातृभाषा में आश्वासन देने वाली माताएं आपने देखी हैं?

मानवता का दीया… ‘माणसाईना दीवा' यानी मानवता का दीया नामक अद्भुत किताब है। यह पुस्तक गुजरात के कवि झवेरचंद मेघाणी ने रविशंकर महाराज की जीवन कथा पर लिखी है। यह एक अनमोल किताब है। हर सदी की एक सुगंध होती है। ऐसे ही एक अनन्य गांधी सुगंध का नाम रविशंकर महाराज था। उनकी खादी की छोटी-सी थैली में पूरा सामान आ जाता। इसमें छोटी-सी भगवद् गीता अवश्य होती। उनका कर्मयोग भी गांधी योग जितना ऊंचा था। उनकी यह किताब गांधी युग की भीनी-भीनी सुगंध का पर्याय मानी जाती है।

चलते चलते… कृष्ण का एक नाम है- लीला पुरुषोत्तम। हिरण्यकश्यपु जैसे राक्षस के यहां प्रह्लाद जैसा भक्त पल जाता, क्या यह चमत्कार नहीं है? तुलसीदास एक विद्वान थे, इसके बाद भी लोगों ने उन्हें एक संत की तरह ही पहचाना। तुलसीदास और अकबर समकालीन थे। विनोबा भावे बारम्बार कहते थे, यह मत कहो कि अकबर के समय में तुलसीदास हो गए, बल्कि यह कहो कि तुलसीदास के समय में अकबर हो गया।

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