कर्नाटक शास्त्रीय संगीत के महान संगीतकार मुथूस्वामी दीक्षितार ने अपनी ‘नवग्रह’ कृति में बुध ग्रह को ‘नपुंसकम’ के तौर पर वर्णित किया है, अर्थात जो न पूर्णतः नर है, न पूर्णतः मादा। इस प्रकार, उन्होंने पुराणों में एक कहानी की ओर संकेत किया। इस कहानी के अनुसार, बृहस्पति ग्रह को पता चला कि उनकी पत्नी तारों की देवी ‘तारा’ अपने प्रेमी चंद्र-देव की संतान के साथ गर्भवती थी। बृहस्पति ने उस संतान को श्राप दिया कि वह नपुंसक लिंग के रूप मंे जन्म लेगा। इस संतान का नाम बुध था। आगे जाकर बुध ने इला से विवाह किया। इला एक पुरुष था, जो अनजाने में एक जादुई बाग में जाने पर महिला बन गया था। उनके मिलन से राजाओं का चंद्र-वंश उत्पन्न हुआ। इसका उल्लेख महाभारत में है।
इला की कहानी जैसी भारत में और भी ऐसी अनेक कहानियां हैं, जिनमें लोगों ने अपना लिंग बदला। नारद एक तालाब में गिरने पर स्त्री के रूप में बदल गए और फिर उन्हें माया का अर्थ समझ में आया। शिव यमुना में स्नान करके गोपी बन गए, ताकि वे कृष्ण के साथ रास-लीला में भाग ले सकें। वृंदावन में गोपेश्वरजी का मंदिर इसी कहानी पर आधारित है।
अहमदाबाद से कुछ दूरी पर बहुचरा माता का मंदिर है, जो मुर्गे पर सवार होती हैं। यह मान्यता है कि किसी समय वहां एक तालाब हुआ करता था, जो स्त्री को पुरुष में, घोड़ी को घोड़े में और मादा कुकुर को नर कुकुर में बदल देता था। हालांकि यह तालाब अब सूख गया है, लेकिन महिलाएं आज भी इस मंदिर में जाकर बालक की मांग करती हैं। वहां वे भगत (जिन्हें कुछ लोग किन्नर कहते हैं) से आशीर्वाद मांगती हैं। भगत पुरुष होते हैं, लेकिन मानते हैं कि वे महिलाएं हैं और इसलिए जीवनभर साड़ी पहनते हैं।
पॉन्डिचेरी के पास कूवगम गांव में विपरीतलैंगिक अली समाज हर वर्ष एक ऐसी घटना मनाता है, जिसका उल्लेख महाभारत में हुआ था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों की जीत सुनिश्चित करने के लिए अर्जुन और उनकी नाग पत्नी ‘उलूपी’ के पुत्र अरावन की बलि चढ़ाया जाना आवश्यक था। अरावन विवाह किए बिना मरना नहीं चाहता था, लेकिन कोई महिला भी ऐसे किसी पुरुष से विवाह नहीं करना चाहती थी, जिसकी मृत्यु अगले दिन निश्चित थी। इसलिए कृष्ण ने मोहिनी का रूप लेकर अरावन के साथ एक रात बिताई और अगले दिन उसकी मृत्यु का शोक मनाया।
इन कहानियों का क्या अर्थ निकाला जाएं? क्या ये समलैंगिकों की कहानियां हैं? इन कहानियों ने निश्चित ही लिंग और कामुकता की पारंपरिक समझ को उथल-पुथल कर दिया है। प्राचीन भारत में लेखकों और कवियों ने निस्संदेह एक ऐसी स्थिति की कल्पना की थी, जहां पुरुषत्व और स्त्रीत्व में भेद कई बार धुंधला होता था और अदृश्य भी हो जाता था। यह विषय भले ही असहज हो, पर ये कहानियां लगातार बिना किसी लज्जा या अपराधबोध के बताई गईं और इसकी जड़ें हम भारतीय तत्त्वमीमांसा में पाते हैं।
भारतवासियों ने हमेशा से माना है कि हमारी आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर और नए शरीर को धारण कर पुनर्जन्म लेती रहती है। अपने कर्म के अनुसार हम पेड़, पत्थर, पक्षी, प्राणी, पुरुष, स्त्री, स्त्री बनने के इच्छुक पुरुष, पुरुष बनने की इच्छुक स्त्री, देवता या दानव के रूप में भी जन्म ले सकते हैं। इस अनंत ब्रह्मांड में संभावनाएं भी अनगिनत हैं। ज्ञानी व्यक्ति जानते हैं कि पुरुषत्व और स्त्रीत्व लिंगहीन आत्मा को ढकने वाली मात्र चादर जैसे हैं। यह जरूरी है कि हम शरीर से न जुड़ें, बल्कि उसके सामर्थ्य को मनाएं और उसकी सीमाओं को जानकर अंततः उनके पार जाएं।
तो प्रश्न यह है कि क्या हममें उन लैंगिक और कामुक अस्पष्टताओं को समाहित करने की करुणा है जो सभ्य मानव समाज में उपस्थित होती है? मैं समझता हूं हममें वह करुणा है। प्रत्येक युग में नए नियम जन्म लेकर विश्व व्यवस्था को नया आकार देते हैं। महाभारत में एक ऐसे युग का उल्लेख है, जिसमें विवाह नहीं होते थे। फिर श्वेतकेतु ने विवाह के नियम स्थापित कर यह व्यवस्था बदल दी। हम एक ऐसे युग से भी गुजरे हैं, जिसमें हमने लैंगिक अल्पसंख्यकों को अमान्य घोषित करने वाले औपनिवेशिक नियमों का विरोध नहीं किया। ये नियम अमानवीय भी रहे। किंतु अब इसकी भरपाई करने का समय आ गया है।
0 टिप्पणियाँ