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हास्यकथा:पेट दर्द की चिकित्सा के अनोखे उपायों से सजी इस व्यंग्य कथा को पढ़कर आप भी पेट पकड़कर हंसे बिना नहीं रह पाएंगे

 

  • जैसे सत्य एक होता है, पर उसके रूप अनेक होते हैं, वैसे ही बीमारी एक होती है, पर उसके इलाज बहुतेरे हो सकते हैं।
  • यों तो यह जिस पर बीते, उसके लिए त्रासदी है, पर कभी-कभी इसमें से सहज-हास्य भी फूट पड़ता है। बेढब बनारसी की यह क्लासिक हास्यकथा हमें भांति-भांति की चिकित्सा पद्धतियों के ऐसे सजीव ब्योरों में, ऐसी चुटकियों के साथ ले जाती है कि हम पूरे समय हंसी रोक नहीं पाते। इसे पढ़ें और मज़ा लें।

(लेखक परिचय

बेढब बनारसी
वर्ष 1885 में काशी में जन्म। वास्तविक नाम कृष्णदेव प्रसाद गौड़। मज़ाकिया लेखन शैली के लिए प्रसिद्ध हिंदी लेखक। वर्ष 1930 में काशी से प्रकाशित होने वाली पत्रिका भूत के संस्थापक-सम्पादक रहे। व्यंग्यपूर्ण कविताएं लिखते थे। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका का सम्पादन भी किया। वर्ष 1968 में निधन।)

मैं बिलकुल हट्टा-कट्टा हूं। देखने में मुझे कोई भला आदमी रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है, यद्यपि मैं विधुर नहीं हूं। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है। आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगों को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्छा होती थी कि किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्छा होता। यह तो न था कि मेरे बीमार होने पर भी दिन में दो बार बुलेटिन निकलते। पर इतना अवश्य था कि मेरे लिए बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिस्कुट- जिन्हें साधारण अवस्था में घरवाले खाने नहीं देते- खाने को मिलते। यूडी कलोन की शीशियां सिर पर कोमल करों से बीवी उड़ेलकर मलती। सबसे बड़ी इच्छा तो यह थी कि दोस्त लोग आकर मेरे सामने बैठते और गम्भीर मुद्रा धारण करके पूछते, कहिए किसकी दवा हो रही है? कुछ फ़ायदा है? जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बनाकर ऐसे प्रश्न करता है, तब मुझे बड़ा मज़ा आता है और उस समय मैं आनंद की सीमा के उस पार पहुंच जाता हूं, जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्दी उठते नहीं। यदि उनके मन की तस्वीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के ‘खोजियों’ के लिए एक अनोखी वस्तु मिल जाए। हां, तो एक दिन हॉकी खेलकर आया। कपड़े उतारे, स्नान किया। शाम को भोजन कर लेने की मेरी आदत है, पर आज मैच में रिफ्रेशमेंट ज़रा ज़्यादा खा गया था, इसलिए भूख न थी। श्रीमती जी ने खाने को पूछा। मैंने कह दिया कि आज कुछ विशेष भूख नहीं है। उन्होंने कहा, ‘विशेष न सही, साधारण सही। मुझे आज सिनेमा जाना है। तुम अभी खा लेते तो अच्छा था। सम्भव है मेरे आने में देर हो।’ मैंने फिर इनकार नहीं किया, उस दिन थोड़ा ही खाया। बारह पूरियां थीं और वही रोज़ वाली आधा पाव मलाई। मलाई खा चुकने के बाद पता चला कि प्रसाद जी के यहां से बाग़ बाज़ार का रसगुल्ला आया है। रस तो होगा ही। कल सम्भव है, कुछ खट्टा हो जाए। छह रसगुल्ले निगलकर मैंने चारपाई पर धरना दिया। रसगुल्ले छायावादी कविताओं की भांति सूक्ष्म नहीं थे, स्थूल थे। एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली। नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में मालूम पड़ता था, कोई बड़ी-बड़ी सुइयां लेकर कोंच रहा है। परंतु मुझे भय नहीं मालूम हुआ, क्योंकि ऐसे ही समय के लिए औषधियों का राजा, रोगों का रामबाण, अमृतधारा की एक शीशी सदा मेरे पास रहती है। मैंने तुरंत उसकी कुछ बूंदें पान कीं। दो बार दवा पी। तिबारा। पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा की सार्थकता उसी समय मुझे मालूम हुई। प्रात:काल होते-होते शीशी समाप्त हो गई। दर्द में किसी प्रकार कमी न हुई। बड़े सवेरे ही एक डॉक्टर के यहां आदमी भेजना पड़ा। रायबहादुर डॉ. विनोद बिहारी मुकर्जी यहां के बड़े नामी डॉक्टर हैं। पहले जब प्रैक्टिस नहीं चलती थी, तब आप लोगों के यहां मुफ़्त जाते थे। पता चला कि डॉक्टर साहब नौ बजे ऊपर से उतरते हैं। इसके पहले वह कहीं जा नहीं सकते। लाचार होकर दूसरे के पास आदमी भेजना पड़ा। दूसरे डॉक्टर साहब सरकारी अस्पताल के सब-असिस्टेंट थे। वे एक इक्के पर तशरीफ़ लाए। सूट तो वे ऐसा पहने थे कि मालूम पड़ता था, प्रिंस आफ वेल्स के वेलेटों में हैं। ऐसे सूट वाले का इक्के पर आना वैसा ही मालूम हुआ, जैसा लीडरों का मोटर छोड़कर पैदल चलना। मैं अपना पूरा हाल भी न कह पाया था कि आप बोले, ‘जनाब, दिखाइए।’ प्रेमियों को जो मज़ा प्रेमिकाओं की आंखें देखने में आता है, शायद वैसा ही डॉक्टरों को मरीज़ों की जीभ देखने में आता है। महोदय मुस्कराए। बोले, ‘घबराने की कोई बात नहीं है। दवा पीजिए। दो खुराक पीते-पीते आपका दर्द वैसे ही ग़ायब हो जाएगा, जैसे हिंदुस्तान से सोना ग़ायब हो रहा है।’ मैं तो दर्द से बेचैन था। डॉक्टर साहब साहित्य झाड़ रहे थे। चलते-चलते बोले, ‘अभी अस्पताल खुला न होगा, नहीं तो आपको दवा मंगानी न पड़ती। ख़ैर, चंद्रकला फ़ार्मेसी से दवा मंगवा लीजिएगा। वहां दवाइयां ताज़ा मिलती हैं। बोतल में पानी गर्म करके सेंकिएगा।’ दवा पी गई। गर्म बोतलों से सेंक भी आरम्भ हुई। सेंकते-सेंकते छाले पड़ गए। पर दर्द में कमी न हुई। दोपहर हुई, शाम हुई। पर दर्द हटने का नाम नहीं लेता था। लोग देखने के लिए आने लगे। मेरे घर पर मेला लगने लगा। ऐसे ऐसे लोग आए कि कहां तक लिखें। हां, एक विशेषता थी। जो भी आता, एक न एक नुस्ख़ा अपने साथ लेता आता था। किसी ने कहा, अजी, कुछ नहीं हींग पिला दो। किसी ने कहा, चूना खिला दो। खाने के लिए सिवा जूते के और कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह गई, जो लोगों ने न बताई हो। यदि भारत सरकार को मालूम हो जाए कि देश में इतने डॉक्टर हैं तो निश्चय है कि सारे मेडिकल कॉलेज तोड़ दिए जाएं। इतने ख़र्च की आख़िर आवश्यकता ही क्या है?

कुछ समझदार लोग भी आते थे, जो इस बात की बहस छेड़ देते थे कि असहयोग आंदोलन सफल होगा कि नहीं, ब्रिटिश नीति में कितनी सच्चाई है, विश्व आर्थिक सम्मेलन में अमेरिका का भाषण बहुत स्वार्थपूर्ण हुआ इत्यादि। मैं इस समय केवल स्मरण-शक्ति से काम ले रहा हूं। तीन दिन बीत गए। दर्द में कमी न हुई। कभी-कभी कम हो जाता था; बीच-बीच में ज़ोरों का हमला हो जाता था, मानो चीन-जापान का युद्ध हो रहा हो। तीसरे दिन तो यह मालूम होता था कि मेरा घर क्लब बन गया है। लोग आते मुझे देखने के लिए, पर चर्चा छिड़ती थी कि पंडित बनारसीदास ने इस बार किसको पछाड़ा, प्रसाद जी का अमुक नाटक स्टेज की दृष्टि से कैसा है, हिंदी के दैनिक पत्रों में बड़ी अशुद्धियां रहती हैं, अब देश में अनार्किस्ट नहीं रह गए हैं, लार्ड विलिंगडन अब ब्रुक बांड चाय नहीं पीते, छतारी के नवाब टेढ़ी टोपी क्यों लगाते हैं और राय कृष्णदास हफ्ते में नौ बार दाढ़ी क्यों बनवाते हैं; अर्थात लार्ड विलिंगडन और महात्मा गांधी से लेकर रामजियावन लाल पटवारी तक की आलोचना यहां बैठकर लोग करते थे। और दर्द की वह दर्दनाक हालत थी कि क्या लिखूं। मुझे भी कुछ बोलना ही पड़ता था। ऊपर से पान और सिगरेट की चपत अलग। भला दर्द में क्या कमी हो? बीच-बीच में लोग दवा और डॉक्टर बदलने की सलाह देते रहते और कौन डॉक्टर किस तरह का है, यह बतलाते जाते थे। आख़िर में लोगों ने कहा तुम कब तक इस तरह पड़े रहोगे। किसी दूसरे की दवा करो। लोगों की सलाह से डॉक्टर चूहानाथ कतरजी को बुलाने की सबकी सलाह हुई। आप लोग डॉक्टर साहब का नाम सुनकर हंसेंगे। पर यह मेरा दोष नहीं है। डॉक्टर साहब के मां-बाप का दोष है। यदि मुझे उनका नाम रखना होता तो अवश्य ही कोई साहित्यिक नाम रखता। परंतु ये यथानाम तथागुण। आपकी फ़ीस आठ रुपए थी और मोटर का एक रुपया अलग। आप लंदन के एफ़आरसीएस थे। कुछ लोगों का सौंदर्य रात में बढ़ता है, डॉक्टरों की फ़ीस रात में बढ़ जाती है। ख़ैर, डॉक्टर साहब बुलाए गए। आते ही हमारे हाल पर रहम किया और बोले, मिनटों में दर्द ग़ायब हुआ जाता है, थोड़ा पानी गरम कराइए, तब तक यह दवा मंगवाइए। एक पुर्ज़े पर आपने दवा लिखी। पानी गर्म हुआ। दो रुपए की दवा आई। डॉक्टर बाबू ने तुरंत एक छोटी-सी पिचकारी निकाली; उसमें एक लम्बी सुई लगाई, पिचकारी में दवा भरी और मेरे पेट में वह सुई कोंचकर दवा डाली। यह कह देना आसान है कि मेरा कलेजा निगाहों के नेज़े घुस जाने से रेज़ा-रेज़ा हो गया है, अथवा उनका दिल बरूनी की बरछियों के हमले से टुकड़े-टुकड़े हो गया है, पर अगर सचमुच एक आलपीन भी धंस जाए तो बड़े-बड़े प्रेमियों को नानी याद आ जाए, प्रेमिकाएं भूल जाएं। डॉक्टर साहब कुछ कहकर और मुझे सांत्वना देकर चले गए। इसके बाद मुझे नींद आ गई और मैं सो गया। मेरी नींद कब खुली कह नहीं सकता, पर दर्द में कमी हो चली थी और दूसरे दिन प्रात:काल पीड़ा रफूचक्कर हो गई थी। कोई दो सप्ताह मुझे पूरा स्वस्थ होने में लगे। बराबर डॉक्टर चूहानाथ कतरजी की दवा पीता रहा। अठारह आने की शीशी प्रतिदिन आती रही। दवा के स्वाद का क्या कहना। शायद मुर्दे के मुख में डाल दी जाए तो वह भी तिलमिला उठे। पंद्रह दिन के बाद मैं डॉक्टर साहब के घर गया। उन्हें धन्यवाद दिया। मैंने पूछा कि अब तो दवा पीने की कोई आवश्यकता न होगी। वे बोले, ‘यह तो आपकी इच्छा पर है। पर यदि आप काफी एहतियात न करेंगे तो आपको ‘अपेंडिसाइटीज़’ हो जाएगा। यह दर्द मामूली नहीं था। असल में आपको ‘सीलियो सेंट्रिक कोलाइटीज़’ हो गया था। और उससे ‘डेवेलप’ कर ‘पेरिकार्डियल हाइड्रेट्यूलिक स्टमकालिस’ हो जाता, फिर ब्रह्मा भी कुछ न कर सकते। मालूम होता है कि आपकी श्रीमती बड़ी भाग्यवती हैं। अगर छह घंटे की देर और हो जाती तो उन्हें ज़िंदगी भर रोना पड़ता। वह तो कहिए कि आपने मुझे बुला लिया। अभी कुछ दिनों आप दवा कीजिए।’


डॉक्टर महोदय ने ऐसे-ऐसे मर्ज़ों के नाम सुनाए कि मेरी तबीयत फड़क उठी। भला मुझे ऐसे मर्ज़ हुए, जिनका नाम साधारण क्या, बड़े पढ़े-लिखे लोग भी नहीं जानते। मालूम नहीं, ये मर्ज़ सब डॉक्टरों को मालूम हैं कि केवल हमारे डॉक्टर चूहानाथ को ही मालूम हैं। ख़ैर, दवा जारी रखी। अभी एक सप्ताह भी पूरा न हुआ था कि दो बजे एकाएक फिर दर्द रूपी फ़ौज ने मेरे शरीर रूपी क़िले पर हमला कर दिया। डॉक्टर साहब ने जिन-जिन भयंकर मर्ज़ों का नाम लिया था, उनका स्वरूप मेरी तड़पती हुई आंखों के सामने नृत्य करने लगा। मैं सोचने लगा कि हुआ हमला किसी उन्हीं में से एक मर्ज़ का। तुरंत डॉक्टर साहब के यहां आदमी दौड़ाया गया कि इंजेक्शन का सामान लेकर चलिए। वहां से आदमी बिन मांगी पत्रिका की भांति लौटकर आया कि डॉक्टर साहब कहीं गए हैं। इधर मेरी हालत क्या थी, उसका वर्णन यदि शार्टहैंड से भी लिखें तो सम्भवत: समाप्त न हो। मैं एयरोप्लेन के पंखे की तेज़ी के समान करवटें बदल रहा था। इधर मित्रों और घरवालों की कांफ्रेंस हो रही थी कि अब कौन बुलाया जाए, पर ‘डिस-अार्मामेंट कांफ्रेंस’ की भांति कोई न किसी की बात मानता था, न कोई निश्चय ही हो पाता था। मालूम नहीं, लोगों में क्या बहस हुई, कौन-कौन प्रस्ताव फ़ेल हुए, कौन-कौन पास। जहां मैं पड़ा कराह रहा था, उसी के बगल में लोग बहस कर रहे थे। कभी-कभी किसी-किसी की चिल्लाहट सुनाई दे जाती थी। बीमार मैं था, अच्छा-बुरा होना मुझे था, फ़ीस मुझे देनी थी, परंतु लड़ और लोग रहे थे। मालूम होता था कि उन्हीं में से किसी की ज़मींदारी कोई ज़बरदस्ती छीने लिए जा रहा है। अंत में हमारे मकान के बगल में रहने वाले पंडित जी की विजय हुई और आयुर्वेदाचार्य, रसज्ञ-रंजन, चिकित्सा-मार्तंड, प्रमेह-गज-पंचानन, कविराज पंडित सुखड़ी शास्त्री को बुलाने की बात तय हुई। आधा घंटा तो बहस में बीता। ख़ैर, किसी तरह से कुछ तय हुआ। एक सज्जन उन्हें बुलाने के लिए भेजे गए। कोई पैंतालीस मिनट बीत गए, परंतु वहां से न वैद्य जी आए, न भेजे गए सज्जन का ही पता चला। एक ओर दर्द इनकमटैक्स की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था, दूसरी ओर इन लोगों का भी पता नहीं। और भी बेचैनी बढ़ी। अंत में जो साहब गए थे वे लौटे। वैद्य जी ने बड़े ग़ौर से पत्रा देखकर कहा था अभी बुद्ध-क्रांति-वृत्त में शनि की स्थिति है, एकतीस पल नौ विपल में शनि बाहर हो जाएगा और डेढ़ घड़ी एकादशी का योग है। उसके समाप्त होने पर मैं चलूंगा। आप आधा घंटा में आइएगा। सुनकर मेरा कलेजा कबाब हो गया। मगर वे कह आए थे, अतएव बुलाना भी आवश्यक था। मैंने फिर उन्हें भेजा। कोई आंधे घंटे बाद वैद्य जी एक पालकी पर तशरीफ़ लाए। आकर आप मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गए। आप धोती पहले हुए थे और कंधे पर एक सफ़ेद दुपट्टा डाले हुए थे। इसके अतिरिक्त शरीर पर सूत के नाम पर केवल जनेऊ था, जिसका रंग देखकर यह शंका होती थी कि कविराज जी कुश्ती लड़कर आ रहे हैं। वैद्य जी ने कुछ और न पूछा- पहले नाड़ी हाथ में ली। पांच मिनट तक एक हाथ की नाड़ी देखी, फिर दूसरे हाथ की। बोले, ‘वायु का प्रकोप है, यकृत से वायु घूमकर पित्ताशय में प्रवेश कर अांत्र में जा पहुंची है। इससे मंदाग्नि का प्रादुर्भाव होता है और इसी कारण जब भोज्य पदार्थ प्रतिहत होता है, तब शूल का कारण होता है। संभव है, मूत्राशय में अश्म भी एकत्र हो।’ कविराज जी मालूम नहीं क्या बक रहे थे और मेरी तबीयत दर्द और क्रोध से एक दूसरे ही संसार में हो रही थी। आख़िर मुझसे रहा न गया। मैंने एक सज्जन से कहा, ‘ज़रा आलमारी में से आप्टे का कोश तो लेते आइए।’ यह सुनकर लोग चकराए। कुछ लोगों को संदेह हुआ कि अब मैं अपने होश में नहीं हूं। मैंने कहा, ‘दवा तो पीछे होगी, मैं पहले समझ तो लूं कि मुझे रोग क्या है?’ पंडित जी कहने लगे, ‘बाबू साहब, देखिए आजकल के नवीन डॉक्टरों को रोगों का निदान तो ठीक मालूम ही नहीं, चिकित्सा क्या करेंगे। अंग्रेज़ी पढ़े-लिखों का वैद्यक-शास्त्र पर से विश्वास उठ गया है। परंतु हमारे यहां ऐसी-ऐसी औषधियां हैं कि एक बार मृत्युलोक से भी लौटा लें। मुहूर्त मिल जाना चाहिए। और अच्छा वैद्य मिल जाना चाहिए।’ इसके पश्चात वैद्य जी चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, रसनिघंटु, भेषजदीपिका, चिकित्सा-मार्तंड के श्लोक सुनाने लगे। और अंत में कहा, ‘देखिए, मैं दवा देता हूं और अभी आपको लाभ होगा। परंतु इसके पश्चात आपको पर्पटी का सेवन करना होगा। क्योंकि आपका शुक्र मंद पड़ गया है। गोमूत्र में आप पर्पटी का सेवन कीजिए, फिर देखिए दर्द पारद के समान उड़ जाएगा और गंधक के समान भस्म हो जाएगा। लिखा है- गोमूत्रेण समायुक्ता रसपर्पटिकाशिता। मासमात्रप्रयोगेण शूलं सर्वे विनाशयेत्।। मैंने कहा, ‘शुक्र अस्त नहीं हो गया, यही क्या कम है। पंडित जी, गोमूत्र पिलाइए और गोबर भी खिलाइए। शायद और कोई भोजन रह ही नहीं गया है।’ ख़ैर, पंडित जी ने दवा दी। कहा कि अदरख के रस में इस औषधि का सेवन करना होग। फ़ीस दी गई, किसी प्रकार वैद्य जी से पिंड छूटा। दो दिन दवा की गई। कभी-कभी तो कम अवश्य हो जाता था, पर पूरा दर्द न गया। सीआईडी के समान पीछा छोड़ता ही न था। वैद्य जी के यहां जब आदमी जाता, तब कभी रविवार, कभी प्रदोष के कारण और कभी त्रिदोष के कारण ठीक समय से दवा ही नहीं देते थे। अब वैसी बेचैनी नहीं रह गई थी, पर बलहीन होता गया। खाना-पीना भी ठीक मिलता ही न था। चारपाई पर पड़ा रहने लगा। दिन को मित्रों की मंडली आती थी। वह आराम देती थी कम, दिमाग़ चाटती थी अधिक। कभी-कभी दूर-दूर से रिश्तेदार भी आते थे। और सब लोग डॉक्टरों को गाली देकर और मुझे बिन मांगी सलाह देकर चले जाते थे। मैं चारपाई पर ‘इंटर्न’ था। आख़िर मेरा विचार हुआ कि फिर डॉक्टर साहब की याद की जाए। जिस समय मैं यह जिक्र कर रहा था एक ‘कांग्रेसमैन’ बैठे हुए थे। यह सज्जन अभी जेल से लौटे थे। मुझे देखने के लिए तशरीफ़ लाए थे। बोले, ‘साहब, आप लोगों को देश का हर समय ध्यान रखना चाहिए। ये डॉक्टर सिवा विलायती दवाओं के ठीकेदार के और कुछ नहीं होते। इनके कारण ही विलायती दवाएं आती हैं। आप किसी भारतीय हकीम अथवा वैद्य को दिखलाइए।’ ऐसी खोपड़ी वालों से मैं क्या बहस करता? मैंने मन में सोचा कि वैद्य महाराज को तो मैंने देख ही लिया। कुछ और रुपयों पर ग्रह आया होगा, तो अब हकीम भी सही। एक की सलाह से मसीहुअ हिंद, बुकारते जमां, सुकरातुश्शफ़ा जनाब हकीम आलुए बुख़ारा साहब के यहां आदमी भेजा। आप फ़ौरन तशरीफ़ लाए। इस ज़माने में भी जब तेज़ से तेज़ सवारियों का प्रबंध सभी जगह है, आप पालकी में चलते हैं। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि पालकी रख दी जाती है अथवा कहार कंधे पर ले लेता है और हकीम साहब उसमें टहला करते है। मेरा मतलब यह है कि जब किसी के यहां आप बुलाए जाते हैं, तब पालकी के भीतर बैठकर आप जाते हैं। हकीम साहब आए। यद्यपि मैं अपनी बीमारी का ज़िक्र और अपनी बे-बसी का हाल लिखना चाहता हूं, पर हकीम साहब की पोशाक और उनके रहन-सहन तथा फ़ैशन का ज़िक्र न करना मुझसे न हो सकेगा। सर्दी बहुत तेज़ नहीं थी। बनारस में यों भी तेज़ सर्दी नहीं पड़ती। फिर भी ऊनी कपड़ा पहनने का समय आ गया था। परंतु हकीम साहब चिकन का बंददार अंगा पहने हुए थे। सिर पर बनारसी लोटे की तरह टोपी रखी हुई थी। पांव में पाजामा ऐसा मालूम होता था कि चूड़ीदार पाजामा बनने वाला था, परंतु दर्ज़ी ईमानदार था। उसने कपड़ा चुराया नहीं, सबका सब लगा दिया। अ‍थवा यह भी हो सकता है कि ढीली मोहरी के लिए कपड़ा दिया गया हो और दर्ज़ी ने कुछ कतर-ब्योंत की हो और चुस्ती दिखाई हो। जूता कामदार दिल्ली वाला था, मोज़ा नहीं था। रूमाल इतना बड़ा था कि अगर उसमें कसीदा कढ़ा न होता तो मैं समझता कि यह मुंह अथवा हाथ पोंछने के लिए नहीं तरकारी बांधने के लिए है। हकीम साहब की दाढ़ी के बाल ठुड्डी की नोक ही पर इकट्ठे हो गए थे। मालूम होता था कि हजामत बनाने का बुरुश है। हकीम साहब दुबले-पतले इतने थे कि मालूम पड़ता था, अपनी तंदुरुस्ती आपने अपने मरीज़ों में बांट दी है। हकीम साहब में नज़ाकत भी बला की थी। रहते थे बनारस में, मगर कान काटते थे लखनऊ के। आते ही मैंने सलाम किया, जिसका उत्तर उन्होंने मुस्कराते हुए अंदाज़ से दिया और बोले, ‘मिज़ाज कैसा है?’ मैंने कहा, ‘मर रहा हूं। बस, आपका ही इंतज़ार था। अब यह ज़िंदगी आपके ही हाथों में है।’ हकीम साहब ने कहा, ‘या रब! आप तो ऐसी बातें करते हैं गोया ज़िंदगी से बेज़ार हो गए हैं। भला ऐसी गुफ़्तगू भी कोई करता है। मरें आपके दुश्मन। नब्ज़ तो दिखलाइए। ख़ुदावंद करीम ने चाहा तो आननफानन में दर्द रफूचक्कर होगा।’ मैंने कहा, ‘आपकी दुआ है। आपका नाम बनारस में ही नहीं, हिंदुस्तान में लुकमान की तरह मशहूर है, इसीलिए आपको तकलीफ़ दी गई है।’ दस मिनट तक हकीम साहब ने नब्ज़ देखी। फिर बोले, ‘मैं यह नुस्ख़ा लिखे देता हूं। इसे इस वक़्त आप पीजिए, इंशाअल्लाह ज़रूर शफ़ा होगी। मैंने ब-ग़ौर देख लिया। लेकिन आपका मेदा साफ़ नहीं है और सारे फ़साद की बुनियाद यही है।’ मैंने कहा, ‘तो बुनियाद उखाड़ डालिए। किस दिन के लिए छोड़ रहे हैं।’ हकीम आलू बुख़ारा बोले, ‘तो आप मुसहिल ले लीजिए। पांच रोज तक मुंजिज़ पीना होगा, इसके बाद मुसहिल। इसके बाद मैं एक माज़ून लिख दूंगा। उसमें जोफ़ दिल, जोफ़ दिमाग़, जोफ़ मेदा, जोफ़ चश्म, हर एक की रियायत रहेगी।’ मुझसे न रहा गया। मैं बोला, ‘कई जोफ़ आप छोड़ गए, इसे कौन अच्छा करेगा।’ हकीम साहब ने कहा, ‘जब तक मैं हूं, आप कोई फ़िक्र न कीजिए।’ एक सज्जन ने उनके हाथों में फ़ीस रखी। हकीम साहब चलने को तैयार हुए। उठे। उठते-उठते बोले, ज़रा एक बात का ख़याल रखिएगा कि आजकल दवाइयां लोग बहुत पुरानी रखते हैं। मेरे यहां ताज़ा दवाइयां रहती हैं। मैंने उनकी दवा उस दिन पी। वह कटोरा भर दवा जिसकी महक रामघाट के सीवर से कॉम्पिटीशन के लिए तैयार थी, किसी प्रकार गले के नीचे उतार गया, जैसे अहलकार लोग अंग्रेज़ों की डांट निगल जाते हैं। दूसरे दिन मुंजिज़ आरम्भ हुआ। उसका पीना और भी एक आफ़त थी। मालूम पड़ता था, भरतपुर के किले पर मोरचा लेना है। मेरी इच्छा हुई कि उठाकर गिलास फेंक दूं, पर घरवाले जेल के पहरुओं की भांति सिर पर सवार रहते थे। चौथे दिन मुसहिल की बारी आई। एक बड़े-से मिट्टी के बधने से दवा मुझे पीने को दी गई। शायद दो सेर के लगभग रही होगी। एक घूंट गले के नीचे उतरा होगा कि जान-बूझकर मैंने करवा गिरा दिया। बधना गिरते ही असफल प्रेमी के हृदय की भांति चूर-चूर हो गया और दवा होली के रंग के समान सबकी धोतियों पर जा पड़ी। उस दिन के बाद से हकीम साहब की दवा मुझे पिलाने का फिर किसी को साहस न हुआ। खेद इतना ही रह गया कि उसी के साथ हकीम साहब वाला माज़ून भी जाता रहा। दर्द फिर कम हो चला। परंतु दुर्बलता बढ़ती जाती थी। कभी-कभी दर्द का दौरा अधिक वेग से हो जाता था। अब लोगों को विशेष चिंता मेरे सम्बंध में नहीं रहती थी। कहने का मतलब यह है कि लोग देखने-सुनने कम आते थे। वही घनिष्ठ मित्र आते थे। घरवालों को और मुझे भी दर्द के सम्बंध में विशेष चिंता होने लगी। कोई कहता कि लखनऊ जाओ, कोई एक्स-रे का नाम लेता था। किसी-किसी ने राय दी कि जल-चिकित्सा कीजिए। एक नेचर-क्योर वाले ने कहा कि आप गी‍ली मिट्टी पेट पर लेपकर धूप में बैठिए, एक हफ्ते में दर्द हवा हो जाएगा। हमारे ससुर साहब एक डॉक्टर को लेकर आए। उन्होंने कहा, ‘देखिए साहब! आप पढ़े-लिखे आदमी हैं। समझदार हैं...’ मैं बीच में बोल उठा, ‘समझदार न होता तो भला आपको कैसे यहां बुलाता।’ डॉक्टर महोदय ने कहा, ‘दवा तो नेचर की सहायता करने के लिए होती है। आप कुछ दिनों तक अपना ‘डायट’ बदल दीजिए। मैंने इसी डायट पर कितने ही रोगियों को अच्छा किया है। मगर हम लोगों की सुनता कौन है। असल में आप में विटैमिन ‘एफ़’ की कमी है। आप नीबू, नारंगी, टमाटो, प्याज़, धनिया के रस में सलाद भिगोकर खाया कीजिए। हरी-भरी पत्तियां खाया कीजिए।’ मैंने पूछा, ‘पत्तियां खाने के लिए पेड़ पर चढ़ना होगा। अगर इसके बजाय घास बतला दें तो अच्छा हो। ज़मीन पर ही मिल जाएगी।’ इसी प्रकार जो आता इतनी हमदर्दी दिखलाता था कि एक डॉक्टर, हकीम या वैद्य अपने साथ लेता आता था। खाने के लिए साबूदाना ही मेरे लिए अब नियामत थी। ठंडा पानी मिल जाता था, यह परमात्मा की दया थी। तीन बजे एक पंडित जी आकर एक पोथी में से पाठ किया करते थे। शाम को एक पंडित और आकर मेरे हाथ में कुछ धूल रख जाते कि महामृत्युंजय का प्रसाद है। इसी बीच में मेरी नानी की मौसी मुझे देखने आईं। उन्होंने बड़े प्रेम से देखा। देखकर बोलीं, ‘मैं तो पहले ही सोच रही थी कि यह कुछ ऊपरी खेल है।’ मैंने पूछा, ‘यह ऊपरी खेल क्या है, नानीजी।’ बोलीं, ‘बेटा, सब कुछ किताब में ही थोड़े लिखा रहता है। यह किसी चुड़ैल का फ़साद है।’ मेरी स्त्री और माता की ओर दिखाकर कहने लगीं, ‘देखो न, इसकी बरौनी कैसी खड़ी है। कोई चुड़ैल लगी है। किसी को दिखा देना चाहिए।’ मैंने कहा, ‘डॉक्टर तो मेरी जान के पीछे लग गए हैं! क्या चुड़ैल उनसे भी बढ़कर होगी।’ जब सब लोग चले गए तब मेरी स्त्री ने कहा, ‘तुम लोगों की बात क्यों नहीं मान लिया करते? कुछ हो या न हो, इसमें तुम्हारा हर्ज़ ही क्या है। कुछ खाने की दवा तो देंगे नहीं। परमात्मा की आज्ञा तो टाली जा सकती है, परंतु अपनी या मैं तो कहूंगी किसी भले आदमी की स्त्री की आज्ञा कोई भला आदमी नहीं टाल सकता।’ मैंने कहा, ‘तुम लोगों को जो कुछ करना है करो, मगर मेरे पास किसी को मत बुलाना। मेरे दर्द में किसी विशेष प्रकार की कमी न हुई। ओझा से तो किसी प्रकार की आशा क्या करता। पर बीच-बीच में दवा भी हो जाती थी। अंत में मेरे साले साहब ने बड़ा ज़ोर दिया कि यह सब झेलना इसीलिए है कि तुम ठीक दवा नहीं करते। होमियोपैथी इलाज शुरू कीजिए, देखिए कितनी शीघ्रता से लाभ होता है। इन नन्हीं-नन्हीं गोलियों में मालूम नहीं कहां का जादू है। साहब, जादू का काम करती हैं, जादू का। हाेमियोपैथी चिकित्सा शुरू करो, सारी शिक़ायत गंजों के बाल की तरह ग़ायब हो जाएगी। मैंने भी कहा, ‘मुर्दे पर जैसे बीस मन वैसे पचास। ऐसा न हो कि कोई कह दे कि अमुक ‘सिस्टम’ का इलाज छूट गया।’ अब राय होने लगी कि किस होमियोपैथ को बुलाया जाए। हमारे मकान से कुछ दूरी पर होमियोपैथ डाकिया था। दिनभर चिट्ठी बांटता था, सवेरे और शाम दो पैसे पुड़िया दवा बांटता था। सैकड़ों मरीज़ उसके यहां जाते। बड़ी प्रैक्टिस थी। एक और होमियोपैथ से चार-छह आने पैदा कर लेते थे। एक मास्टर भी थे, जो कहा करते थे कि सच पूछो तो जैसी होमियोपैथी मैंने ‘स्टडी’ की है, किसी ने नहीं की। कुछ बहस के बाद एक डॉक्टर का बुलाना निश्चित हुआ। डॉक्टर महोदय आए। आप बंगाली थे। आते ही सिर से पांव तक मुझे तीन-चार बार ऐसे देखा, मानो मैं हानोलूलू से पकड़कर लाया गया हूं और खाट पर लिटा दिया गया हूं। इसके पश्चात मेडिकल सनातन-धर्म के अनुसार मेरी जीभ देखी। फिर पूछा, ‘दर्द ऊपर से उठता है, कि नीचे से, बाएं से कि दाएं से, नोचता है कि कोंचता है; चिकोटता है कि बकोटता है; मरोड़ता है कि खरबोटता है।’ मैंने कहा कि मैंने दर्द की फ़िल्म तो उतरवाई नहीं है। जो कुछ मालूम होता है, मैंने आपसे कह दिया। डॉक्टर महोदय बोले, ‘बिना ‘सिमटाम’ के देखे कैसे दवा देने सकता है। एक-एक दवा का ‘भेरियस सिमटाम’ होता है।’ फिर मालूम नहीं कितने सवाल मुझसे पूछे। इतने सवाल तो आईसीएस ‘वाइवावोसी’ में भी नहीं पूछे जाते। कुछ प्रश्न यहां अवश्य बतला देना चाहता हूं। मुझसे पूछा, ‘तुम्हारे बाप के चेहरे का रंग कैसा था। कै बरस से तुमने सपना नहीं देखा। जब चलते हो तब नाक हिलती है या नहीं। किसी स्त्री के सामने खड़े होते हो तब दिल धड़कता है कि नहीं? जब सोते हो तब दोनों आंखें बंद रहती हैं कि एक। सिर हिलाते हो तो खोपड़ी में खटखट आवाज़ आती है कि नहीं।’ मैंने कहा, ‘आप एक शार्टहैंड राइटर भी साथ लेकर चलते हैं कि नहीं। इतने प्रश्नों का उत्तर देना मेरे लिए असम्भव है।’
फिर डॉक्टर बाबू ने पचीसों पुस्तकों का नाम लिया और बोले, ‘फ़ेरिंगटन यह कहते हैं, नैश यह कहते हैं, क्लार्क के हिसाब से यह दवा होगी।’ डॉक्टर साहब पंद्रह-बीस पुस्तकें भी लाए थे। आधे घंटे तक उन्हें देखते रहे। तब दवा दी। आपकी दवा से कुछ लाभ अवश्य हुआ, पर पूरा फ़ायदा न हुआ। मैंने अब पक्का इरादा कर लिया कि लखनऊ जाऊं। जो बात काशी में नहीं हो सकती, लखनऊ में हो सकती है। वहां सभी साधन हैं। सब तैयारी हो चुकी थी कि इतने में एक और डॉक्टर को एक मेहरबान लिवा लाए। उन्होंने देखा, कहा, ‘ज़रा मुंह तो देखूं।’ मैंने कहा, ‘मुंह-जीभ जो चाहे देखिए।’ देखकर बड़े ज़ोर से हंसे। मैं घबराया। ऐसी हंसी केवल कवि-सम्मेलन में बेढंगी कविता पढ़ने के समय सुनाई देती है। मैं चकित भी हुआ। डॉक्टर बोले, ‘किसी डॉक्टर को यह सूझी नहीं। तुम्हें ‘पाइरिया’ है। उसी का ज़हर पेट में जा रहा है और सब फ़साद पैदा कर रहा है।’ मैंने कहा, ‘तब क्या करूं?’ डॉक्टर साहब ने कहा, ‘इसमें करना क्या है? किसी डेंटिस्ट के यहां जाकर सब दांत निकलवा दीजिए।’ मैंने अपने मन में कहा, ‘आपको तो यह कहने में कुछ कठिनाई ही नहीं हुई। गोया दांत निकलवाने में कोई तकलीफ़ ही नहीं होती।’ ख़ैर, रात भर मैंने सोचा। निश्चय किया कि यही डॉक्टर ठीक कहता है। डेंटिस्ट के यहां से पुछवाया। उसने कहलाया कि तीन रुपए फ़ी दांत तुड़वाने में लगेंगे। कुल दांतों के लिए छानबे रुपए लगेंगे। मगर मैं आपके लिए छह रुपए छोड़ दूंगा। इसके अतिरिक्त दांत बनवाई डेढ़ सौ अलग। यह सुनकर पेट के दर्द के साथ-साथ सिर में भी चक्कर आने लगा। मगर मैंने सोचा कि जान सलामत है तो सब कुछ। इतना और ख़र्च करो। श्रीमती से मैंने रुपए मांगे। उन्होंने पूछा, ‘क्या होगा?’ मैंने सारा हाल कह दिया। वे बोलीं, ‘तुम्हारी बुद्धि कहीं घास चरने गई है क्या? किसी कवि का तो साथ नहीं हो गया है कि ऐसी बातें सूझने लगी हैं। आज कोई कहता है कि दांत उखड़वा डालो। कल कोई कहेगा बाल उखड़वा डालो; परसों कोई डॉक्टर कहेगा कि नाक नोचवा डालो, आंख निकलवा दो। यह सब फ़जू़ल है। तुम सुबह टहला करो, किसी एक भले डॉक्टर की दवा करो। खाना ठिकाने से खाओ। पंद्रह दिन में ठीक हो जाओगे। मैंने सबका इलाज भी देख लिया।’ मैंने कहा, ‘तुम्हें अपनी ही दवा करनी थी तो इतने रुपए क्यों बरबाद कराए?’ कुछ दिन के बाद मैंने समझा कि स्त्रियों में बुद्धि होती है। विशेषत: बीस साल की आयु के बाद।

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