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चिंतन:ईमानदार लोगों को बस याद कर लीजिए, यही आपकी तपस्या है

 

प्रतीकात्मक तस्वीर।

इस समय पूरा देश नया भारत बनने की दिशा में अग्रसर है। देश के कोने-कोने में इसके लिए काम हो रहे हैं। पर हमारे सरकारी कार्यालयों के हाल ही न पूछो। यहां आने वाला एक ग्रामीण शख्स "अनवांटेड मनुष्य" है। ये ऐसे ग्रामीण का प्रतिनिधित्व करता है, जिनकी संख्या लाखों में है। जो अपने काम के लिए सरकारी कार्यालयों में पहुंचता है, पर वहां की भर्राशाही के कारण उसका काम नहीं हो पाता। पूरे कार्यालय में एक सुस्ती पसरी होती है, जहां बाबू लोग केवल चाय पीकर अपना समय गुजारते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा देश ही आलसी हो गया है।

सरकारी कार्यालयों में कई फाइलें होती हैं। कुछ फाइलों में सुदूर क्षेत्र से आने वाले मजबूर किसान का चेहरा उभरा होता है। एक छोटी-सी आशा के साथ वह बाबू के सामने खड़ा होता है। वह गुहार लगाता है कि किसी ने दूसरे बाबू को रिश्वत देकर उसे मृत घोषित कर दिया है और उसकी जमीन अपने नाम कर ली है। वह किसान चालाक नहीं है, पर ईमानदार अवश्य है। उसकी बेबसी को बाबू समझ जाता है। वह उस किसान से पूछता है- कहां से आए हो? किसान कहता है कि यहां से करीब 300 किलोमीटर दूर मेरा गांव है। सात घंटे लगे हैं यहां तक पहुंचने में। अब यहां से निकलूंगा तो गांव पहुंचने में रात के 12 बज जाएंगे। अगर आप मेरी गुहार सुन लेंगे तो आपका आभारी रहूंगा। इधर बाबू तो आखिर बाबू ही होता है। वह बड़ी विनम्रता से कह देता है- 15 दिन बाद आना।

एक हंगेरियन कहावत है कि कौवा सांड की पीठ पर बैठकर पीठ की सफाई नहीं करता, बल्कि वहां से मक्खियां खाकर अपना पेट भरता है। सरकारी कार्यालय के बाबू की प्रवृत्ति भी ऐसी होती है कि वह सद्भावना से दूर केवल अपने स्वार्थ की रोटियां ही सेंकता रहता है (कुछ अपवाद छोड़ दीजिए)। इस समय जब पूरा देश आगे बढ़ने के लिए अग्रसर है तो सरकारी कार्यालयों के कामकाज को सुचारू करने की जिम्मेदारी दफ्तर के बड़े साहब की है। मैनेजमेंट फंडा भी यही कहता है कि यदि ऊपर वाला ईमानदार होगा तो यह ईमानदारी नीचे तक जाएगी।

मुझे एक बात समझ में नहीं आती। मनुष्य को ईमानदार बनने के लिए कई तकलीफों का सामना करना पड़ता है, पर बेईमान बनने के लिए उसे कोई परेशानी क्यों नहीं होती? मेरा एक बालसखा है। वह खेती करता है। रोज सुबह जब वह अपने खेत जाता है तो उसे बहुत खुशी होती है। वह किसी की बुराई नहीं करता। वह हृदय से ही किसान है। उसे कोई भी ठग सकता है, पर वह किसी को ठग नहीं सकता। यदि उसे किसी व्यापारी को रुपए देने हैं, तो वह कई रातों तक ठीक से सो नहीं सकता। सामने वाले को जल्दी नहीं होती, पर इसे रुपए लौटाने की जल्दी होती है। मेरे उस बालसखा की उम्र 87 साल है। उन्हें उनका बेटा रोज सुबह खेत में छोड़ देता है। एक-डेढ़ घंटे बाद वे वापस आ जाते हैं। इसके बाद बेटा अपने काम के लिए सूरत निकल जाता है। मेरा दोस्त खेत में काम कर सकें, ऐसी स्थिति में नहीं हैं। पर रोज खेत जाकर वहां झूले में झूलते हुए अपनी फसलों को निहारते हैं। यही क्षण उनके आनंद का क्षण होता है। घर आकर वे "आचार्य कृपलानी की आत्मकथा" पढ़ते हैं।

दोस्त हमारे पीएम नरेंद्र मोदी के जबर्दस्त प्रशंसक हैं। कोई यदि मोदी की निंदा करता है तो वे उससे झगड़ पड़ते हैं। मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब मेरे इसी मित्र ने उन्हें अपने अंबर चरखे से काते गए सूत से बनी चादर उन्हें भेजी थी। ऐसे किसान किसी साधु से कम नहीं हैं। अपने प्रति ईमानदार बने रहने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिलती है। ऐसे लोगों का स्मरण ही एक तपस्या है। इसके बाद हमें किसी भी आश्रम में जाने की आवश्यकता नहीं है। हमारी पृथ्वी ऐसे साधुओं के कारण ही टिकी हई है।

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