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बहस:क्या धुंधली हो रही है भारतीय लोकतंत्र की छवि?

 

अमेरिकी वाचडॉग 'फ्रीडम हाउस' और एक स्वीडिश संस्थान वी-डेम की भारतीय लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाती रिपोर्ट्स पर विवाद थमा भी नहीं था कि यूएस सीनेट फॉरेन रिलेशन्स कमेटी के चेयरपर्सन रॉबर्ट मेनेन्डेज़ ने यह कहकर बहस को नया सिरा थमा दिया है कि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर हटता जा रहा है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर विरोधियों के वैचारिक दमन तक के तमाम मसलों पर विगत लंबे अरसे से देश में दो पक्ष आमने-सामने हैं। एक पक्ष लोकतंत्र पर उठते सवालों से चिंतित है तो दूसरा पक्ष ऐसे सवालों को खारिज करता आया है। इस हफ्ते की कवर स्टोरी में बहस इसी मुद्दे पर...

लोकतांत्रिक छवि पर सवालिया निशान लगाती हैं ये 5 बातें : पुष्पेश पंत

1. धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ माहौल

आज देश में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ एक तरह का माहौल बना हुआ है। सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों के बयान इस माहौल को और हवा दे देते हैं। खासकर सीएए के मामले में अल्पसंख्यक विरोध की हमारी जो छवि बनी, उसने विश्व बिरादरी के सामने कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगाए हैं। कई बार छोटी-छोटी घोषणाएं भी पूरे देश की छवि पर अल्पसंख्यक विरोधी होने का ठप्पा लगा देती हैं। जैसे अभी हाल ही में गुरुग्राम में घोषणा की गई है कि मंगलवार के दिन वहां मांस नहीं बिकेगा क्योंकि एक धर्म विशेष के लोगों की भावनाओं को इससे ठेस पहुंचती है। भारत के संविधान में गौ रक्षा की बात जरूर है, लेकिन हर तरह के मांस को वर्जित नहीं माना जा सकता।

2. जो सहमत नहीं, वे देशद्रोही!

किसान आंदोलन या इससे पहले सीएए के खिलाफ हुए प्रदर्शन को दबाने के समय सत्ता प्रतिष्ठानों की तरफ से जो आचरण हुआ, उसे देखिए। यहां तो सीधा-सीधा संदेश दिया गया कि जो सरकार या सरकार की विचारधारा के साथ नहीं है, वह देशद्रोही या खालिस्तानी या माओवादी है। जिनका वैचारिक मतभेद है, उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य कह रहे हैं। ये बातें दुनिया के सामने भारत के जनतंत्र को निरापद नहीं बनातीं।

3. बहस व चर्चा से दूरी

कोरोना के कारण देश में क्रिकेट नहीं रुक रहा है, तमाम धार्मिक आयोजन नहीं रुक रहे हैं, लेकिन बजट सेशन को कट कर दिया गया। कोई भी बिल स्थाई समिति के पास भेजे बिना पारित हो रहे हैं। राज्यसभा में किसान बिल बगैर किसी चर्चा के ध्वनिमत से पारित हो गए। सवाल यह है कि जब सरकार के पास पूर्ण बहुमत है तो फिर भी कोई विधेयक स्थायी समिति के पास क्यों नहीं भेजा जा रहा? उस पर संसद में बहस क्यों नहीं की जाती? अगर बहुमत के बावजूद सरकार इससे कतरा रही है तो लगता है कि कहीं न कहीं दाढ़ी में तिनका है।

4. जांच एजेंसियों का दुरुपयोग :
केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग या दुरुपयोग संबंधी आरोप भी भारतीय लोकतंत्र की छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं। सवाल यह है कि चुनाव सामने आते ही एजेंसियों को पुराने मामले क्यों याद आने लगते हैं? जैसे पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं तो वहां 8-8 साल पुराने मामलों में भी प्रवर्तन निदेशालय हो या आयकर विभाग, सक्रिय हो गए हैं। इन एजेंसियों को अचानक तमिलनाडु में कमल हासन याद आ रहे हैं, क्योंकि वे सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हैं। इधर चुनाव आयोग पर भी आक्षेप लगे हैं। अगर एक राज्य में आठ चरणों में चुनाव हो रहे हैं तो मामला केवल सुरक्षा का नहीं हो सकता। उसकी मंशा पर सवाल उठने लाजिमी हैं।

5. कहीं न कहीं डर का माहौल
देश में कहीं न कहीं तो डर का माहौल है। ऐसे कई मामले आए हैं जब सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ की गई आलोचनात्मक पोस्ट पर तीखी प्रतिक्रिया सत्ता प्रतिष्ठानों की ओर से की गई। यह लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है। हां, इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण होना चाहिए। लेकिन यह सोशल मीडिया कंपनियों की उच्छृंखला पर होना चाहिए, न कि वहां व्यक्त किए जा रहे विचारों पर।

(पुष्पेश पंत वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक और स्तंभकार हैं।)

इन 5 बातों से साबित होता है कि व्यर्थ हैं तमाम आशंकाएं : आलोक मेहता

1. बोलने से किसने रोका है?

सबसे ज्यादा चिंता अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जताई जा रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की आजादी का प्रावधान है। लेकिन इसी अनुच्छेद के क्लॉज 2 में कुछ शर्तें भी जोड़ी गई हैं। इसके अनुसार विचारों की अभिव्यक्ति में देश की सुरक्षा और अखंडता, अदालतों के सम्मान का ध्यान आदि रखना है। अगर क्लॉज 2 की शर्तों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाती है, तो इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां बाधित होती है? बाकी तो लोग खुलकर अपनी बात कह ही पा रहे हैं।

2. विपक्ष खुद ही चर्चा नहीं चाहता

विपक्षी दल अक्सर आरोप लगाते हैं कि उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया जाता। लेकिन संसद के रिकॉर्ड के अनुसार 2015 से 2019 के बीच प्रश्नकाल का 60 फीसदी समय विपक्ष के हो-हल्ले की भेंट चढ़ गया। तो यहां सवाल विपक्ष से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने प्रश्नकाल जैसी अहम कालावधि को क्यों गंवा दिया? और यह भी तथ्य है कि जब संसद में बहस होती है तो अमेरिका और ब्रिटेन की संसद की तरह लम्बी स्तरीय चर्चाएं भी होती हैं।

3. पार्टियों में लोकतंत्र नहीं, देश में तो है

स्वीडन की संस्थान की रिपोर्ट आते ही राहुल गांधी ने बड़ा गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि पाकिस्तान की तरह अब भारत भी अलोकतांत्रिक देश है। यह आरोप लगाने से पहले क्या राहुल को खुद अपनी पार्टी में झांककर नहीं देखना चाहिए था कि वहां कितना लोकतंत्र है? 1998 से यानी करीब 22 साल से कांग्रेस अध्यक्ष का पद एक ही परिवार के पास है। तो पार्टियों की आंतरिक कमजोरियों की वजह से जरूर देश के लोकतंत्र पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

4. हर सरकार में दुरुपयोग

मेरा मानना है कि सीबीआई और आयकर विभाग जैसी एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल हरगिज नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर इनका दुरुपयोग हो रहा है तो पहले की सरकारों के समय भी खुलकर हुआ। किसी जमाने में तो सीबीआई को ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ तक कहा जाता था। तब तो किसी ने नहीं कहा कि लोकतंत्र खतरे में है। पश्चिम बंगाल को लेकर बात हो रही है कि चुनाव आयोग 8 चरणों में चुनाव क्यों करवा रहा है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की एक निश्चित प्रक्रिया होती है और उसके तहत वह राज्य और वहां के अधिकारियों के साथ भी चर्चा करता है। उस चर्चा के बाद ही मतदान के चरण सहित कई बातें तय होती हैं।

5. विरोध करने का अधिकार अक्षुण्ण

कई लोग और विपक्षी दल लोकतंत्र पर खतरे की बात करते समय नए कृषि कानूनों के खिलाफ हो रहे किसानों के आंदोलन का उल्लेख करना नहीं भूलते। मेरा सवाल यह है कि किसानों ने देश की राजधानी दिल्ली को कई दिनों तक घेरे रखा। वे आज भी आंदोलनरत हैं। वे दो बार भारत बंद कर चुके हैं। क्या उन्हें उनके विरोध करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है? सरकार ने उनकी कई शर्तें मान ली हैं। कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक होल्ड करने का प्रस्ताव दिया है। प्रधानमंत्री तक बात करने को तैयार हैं। क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र के संकेत नहीं हैं?

(आलोक मेहता पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं।)

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