- बच्चे के सुख के लिए, उसकी चाहतों के लिए मां सबकुछ करती है, सारे त्याग करती है, मगर बच्चा कभी पूछता या सोचता भी है कि मां क्या चाहती है? मां के महिमागान से ज़्यादा ज़रूरी है इस प्रश्न का उत्तर पाना। इसी में मां की वास्तविक ख़ुशी है।
थोड़े समय पहले हरियाणा की एक सत्रह साल की ख़ूबसूरत और बुद्धिमती युवती मानुषी छिल्लर ने मिस वर्ल्ड का ख़िताब जीता। उसके अंतिम चरण में उनसे एक प्रश्न पूछा गया जिसके उत्तर ने दुनियाभर में एक वैचारिक मंथन पैदा कर दिया। चयनकर्ता ने मानुषी से पूछा, ‘सबसे अधिक तनख़्वाह विश्व के किस व्यवसाय को, किस व्यक्ति को मिलनी चाहिए?’ बिना पलक झपकाए मानुषी ने कहा, ‘मां को। एक मां जो कुछ अपने बच्चों के लिए, अपने घर के लिए उम्रभर करती है उसका कोई सानी नहीं है। उसका ऋण हम चुका तो नहीं सकते लेकिन तनख़्वाह केवल पैसों के रूप में नहीं होती बल्कि प्रेम और आदर के रूप में भी होती है। मेरी मां मेरी प्रेरणा रही है, मेरी सबसे अच्छी दोस्त भी है, मैं चाहूंगी हर मां को सबसे ज़्यादा तनख़्वाह मिलनी चाहिए।’ अंतरराष्ट्रीय दर्शकों से भरा हुआ पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इस हार्दिक जवाब ने मानुषी का मिस वर्ल्ड का ताज पक्का कर ही दिया और साथ में एक विश्वव्यापी बहस भी छेड़ दी।
परवाह की क़ीमत नहीं, पर कुछ चुकाएं तो सही...
वाक़ई, मां के काम की क़ीमत कैसे आंकें? इधर कुछ समय से फोर्ब्स द्वारा संचालित वेबसाइट सैलेरी डॉट कॉम पर आंकड़े इकट्ठा किए जा रहे हैं। मां दिन-रात इतने तरह के काम करती है कि उन्हें करने के लिए अलग-अलग कर्मचारी रखने पड़ेंगे। उन सबको जो वेतन देना पड़ेगा उसका हिसाब करके एक अमेरिकी संस्था ने मां के लिए सालाना एक लाख पंद्रह हज़ार डॉलर (क़रीब 95 लाख रुपये) तय किए हैं। लेकिन यह भी मां के काम के लिए बहुत कम है।
मां को पैसे देना अटपटा ज़रूर लगता है लेकिन आज की हक़ीक़त देखकर थोड़ा व्यावहारिक विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है। एक बात अच्छी तरह समझ लें कि परिवार में मां की जो भूमिका होती है उसमें बच्चों की उम्र के हिसाब से फ़र्क पड़ता जाता है। मां एक कल्पना, और मां एक यथार्थ, इसमें बहुत अंतर है। यह सच है कि पैसे चुकाकर मां से मिलने वाले मानसिक, भाविक, आत्मिक पोषण की क़ीमत नहीं दी जा सकती। लेकिन वास्तविकता ऐसी है कि बच्चों का प्यार मां को तभी तक मिलता है जब तक उनकी अपनी ज़िंदगी शुरू नहीं हो जाती। बच्चे के बड़े होने के बाद यही मां इतनी अकेली पड़ जाती है कि उसे छोटी-छोटी चीज़ों के लिए बच्चों का मोहताज होना पड़ता है। मां का सम्मान तभी होगा जब बुढ़ापे के मद्देनज़र युवावस्था में ही उसके काम के सम्मान स्वरूप पर्याप्त पैसे बैंक में डाल दिए जाएं। जब बच्चों को मां की ज़रूरत न हो तब भी उसका सम्मान होता रहे, वह घर में एक अवांछित बोझ न मालूम हो; इसका प्रशिक्षण बच्चों को बचपन से ही देना शुरू कराना पड़ेगा।
दुनिया बदल गई, पर मां की कसौटी क्यों है वही...
कल्पना की मां पर कविताएं और लेख तो बहुत लिखे जाते हैं लेकिन वह हमेशा दूसरे लोगों का प्रक्षेपण और अपेक्षा होती है कि मां ऐसी होनी चाहिए। लेकिन क्या कभी मां के नज़रिए से किसी ने सोचा? मां क्या चाहती है? जब आपको ज़रूरत होती है तो मां सदा उपलब्ध रहती है लेकिन जब मां को ज़रूरत होती है तो क्या परिवार के लोग मौजूद होते हैं? क्या कभी यह जानने की कोशिश की कि उसकी गहनतम भावनाएं क्या हैं? हुआ यह है कि मां के बारे में जितने आदर्श निर्मित किए गए वे सारे पुरुषों ने किए हैं जिन्हें मातृत्व का कोई अनुभव नहीं होता। त्याग, समर्पण, तपस्या, प्रेम, सहनशीलता ये मां के आदर्श माने गए हैं। इस कसौटी पर खरी उतरने के लिए हर स्त्री कोशिश करती है लेकिन सफल नहीं होती। हो ही नहीं सकती। मूलत: मां बनना शरीर के लिए इतना पीड़ादायी होता है, फिर बच्चों को दिन-रात जागकर बड़ा करना उससे भी कठिन। बावजूद इसके मां हमेशा अपराधबोध में जीती है कि वह आदर्श मां नहीं है। माताओं की ये सारी काल्पनिक छवियां प्राचीन समाज व्यवस्था के लिए बनी थीं जब स्त्री का घर ही उसकी पूरी दुनिया थी। अब ज़माना इतना बदला चुका है। आज की स्त्री एक स्वतंत्र हस्ती है, एक पराधीन लता नहीं। आज जब स्त्रियां पुरुष के बराबर शिक्षित, प्रतिभाशाली और सक्षम हैं तो उनकी प्राथमिकताएं भी बदली हैं। आज की मां एक पायलट हो सकती है, एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक, एक खिलाड़ी, एक प्रधानमंत्री। इन ज़िम्मेदारियों के साथ वह मातृत्व का दायित्व निभाती है। मां होना उसके जीवन का एक हिस्सा है, सम्पूर्ण जीवन नहीं है।
मां बनने से पहले ज़रूरी है मां का मानस पाना...
वस्तुत: मां बनना एक सृजन की प्रक्रिया है, लेकिन सृजन के कई तल हैं; कोई भी रचनात्मक काम जैसे कला, नृत्य, संगीत या किसी संस्था का निर्माण, राष्ट्र का निर्माण ये भी सृजनात्मक काम हैं। वे उतनी ही संतुष्टि देते हैं। जैविक मां प्रकृति का हिस्सा है जो हर पशु-पक्षी में पाया जाता है। उसके लिए उन्हें कहीं प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता, वह प्रकृति ने दिया हुआ गुण है जो जीवन को आगे चलाने के लिए आवश्यक है। मनुष्य की गरिमा यह है कि मातृत्व कई तलों पर हो सकता है। जैविक यानी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक। मानासिक मां बनना बहुत कठिन है। उसके लिए बहुत प्रयास करने पड़ते हैं। उसके लिए बहुत परिपक्व चित्तदशा चाहिए जिसकी कोई शिक्षा स्त्री को नहीं दी जाती। बगै़र ध्यान के, आत्मविकास के आत्मिक मां बनना सम्भव नहीं है। जब भी कोई स्त्री ओशो से पूछती कि मैं मां बनना चाहती हूं तो वे यही कहते, अभी तुम्हारे भीतर इतनी समस्याएं हैं, अभी बच्चे को जन्म मत दो। नहीं तो तुम अपनी बीमारियां उसे हस्तांतरित करोगी। पहले ख़ुद को विकसित करो, प्रेमपूर्ण बनो, फिर सोचना।
अगर मां का दिवस मनाना है तो मैं यही कहूंगी कि मां को आज़ाद करो। उसे एक व्यक्ति की तरह जीने दो। यदि वह जैविक मां बन भी गई तो उसे एक स्वतंत्र व्यक्ति की भांति जीने का पूरा हक़ है। उसे नए कौशल सीखने हैं, प्रेम करना है या आध्यात्मिक विकास करना है तो उसके लिए वातावरण होना चाहिए। जितनी आत्म-विकसित, भीतर से समृद्ध मां होगी उतने ही बच्चे भी बहुआयामी होंगे।
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