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स्वर्णकथा:सदियों से सोना बनाने के प्रयास में लगा है इंसान, इतिहासकारों ने भी साेना बनाने की सनक का किया है उल्लेख

  • स्वर्ण सदा सर्वदा से एक क़ीमती धातु बनकर मानव मन की धन आकांक्षाओं के आकाश पर छाया रहा है।राजा मिडास की कथा जगप्रसिद्ध है जिसमें वह किसी भी वस्तु को छूकर सोने में बदल देता था। इंसान स्वर्ण की गहन लालसाओं में कुछ भी कर गुज़रने को उद्यत रहा। यह सनक उसे कभी सर्पविष तक ले गई तो इसने कभी नरबलि जैसा पापमय कुकृत्य करवा डाला।
  • तब भी स्वर्ण की यह साध कभी पूरी हुई या नहीं, कौन जानता है!

‘तोरस, मोरस, गंधक, पारा। इन्हि मार इक नाग संवारा।। नाग मारि नागिन को देय। सारा जग कंचन कर लेय।।'

ये रहस्य भरा नुस्ख़ा है, सोना बनाने का। इस सूक्त में गंधक और पारा तो सर्वज्ञात हैं किंतु तोरस, मोरस पदार्थों के बारे में अज्ञान ही है। सूत्र की अगली पंक्ति ‘नाग मारि नागिन को देय’ का तोड़ पाने के लिए कितनों ने अपनी जि़ंदगी को तोड़ डाला, लेकिन सारा जग कंचन नहीं कर सके।

सोना बनाने की सनक भारत ही नहीं पूरी दुनिया में व्याप्त रही। मिस्र के कीमियागरों के बारे में प्रचलित है कि वे धातु से सोना बना देते थे। बहरहाल, किंवदंतियों को छोड़ दें तो यथार्थ में न तो कोई पारस पत्थर पा सका और न ही सोना बनाने की रहस्यविद्या को पूर्णतः जान सका। लिहाज़ा, पारस पाने की तरह सोना बनाने की दीवानगी के आख्यान भी बहुत हैं।
सर्पविष से स्वर्णआभा

भारत में बाबाओं, तांत्रिकों और अघोरियों द्वारा तांबे के चम्मच को सोना बनाने के क़िस्से बहुत सुने गए हैं। ऐसे ही एक क़िस्से का उल्लेख मथुरा के योगेंद्र निर्मोही ने किया है। उन्होंने लिखा है कि बाबा राघवदास सोना बनाने की विधि जानते थे। निर्मोही उक्त बाबा से जोधपुर में मिले थे जिन्होंने स्वमूत्र से तांबे के टुकड़े को सोने में परिवर्तित कर दिया था। ठोस धातु की परमाणु संरचना में इस तरह का बदलाव लाना विज्ञान सम्मत भले ही न हो लेकिन इस वैज्ञानिक युग में लोग आज भी सोना बनाने के लालच से दूर नहीं हो पाते हैं और ठगे जाते हैं।

धूर्त लोग, सोना बनाने की विधि का प्रदर्शन करके लोगों की आंखों में कैसे धूल झोंक देते हैं, इसका एक उदाहरण- धूर्त एक पोली छड़ में थोड़ा-सा सोना रखकर उसका निचला सिरा मोम से बंद कर देते हैं। उसके बाद, एक पात्र में अपना मिश्रण डालकर उसे खौलाते हैं और छड़ से हिलाते जाते हैं। ताप से मोम पिघल जाता है तथा सोना छड़ से निकलकर पात्र में आ जाता है। उस विधि को दिखाकर शातिर लोग, दर्शकों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाते हैं कि उनके मिश्रण से ही सोना बना है। फिर, उस मिश्रण को वे ऊंची क़ीमतों पर बेच देते हैं। सोचिए यदि ठग सोना बनाना जानते होते तो अपनी विधि को यूं उजागर करते नहीं घूमते, सारा जग कंचन कर लेते।

वटयक्षिणी का वरदान

रसविद्या के ज्ञाता नागार्जुन भी स्वर्ण बनाने में दक्ष बताए गए हैं। उनके समय तारबीज और हेमबीज विधि प्रचलित थीं जिनकी सहायता से चांदी और सोना बनाए जाते थे। नागार्जुन पारे से सोना बना देते थे। नागार्जुन ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया और नालंदा में जब घोर दुर्भिक्ष पड़ा तो उन्होंने सोना बनाकर भिक्षुओं को दिया था।

नागार्जुन को सोना बनाने की विधि प्राप्त होने के बारे में शालिवाहन का कथन है कि नागार्जुन ने बारह वर्ष तक वटयक्षिणी की कठोर साधना की। तब, वाणी ने प्रसन्न होकर कहा, ‘साधु! जो कुछ तुमने प्रार्थना की, वो सब मैं दूंगी।’

शालिवाहन कहता है कि नागार्जुन ने कहा, ‘हे देवि! मुझे रसबंध (पारा बांधना) की विधि बताओ।’

देवि ने बोला, ‘हे साधक! मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे योग बताती हूं जिससे सिद्ध किए हुए पारद की सहायता से तांबा व सीसा स्वर्ण बन जाएंगे।’

रत्नघोष ने भी कोटिवेधि-महारस तैयार किया था जिसका करोड़वां भाग किसी धातु को सोने में बदल देने में सक्षम था।

रक्त से बन गया सोना
ग्यारहवीं सदी में भारत की यात्रा पर आया फ़ारसी विद्वान अलबेरूनी रसायन विज्ञान का ज्ञाता भी था। उसने व्याडि नाम के एक आदमी का उल्लेख किया है। वह राजा विक्रमादित्य के काल में उज्जैन में रहता था।

व्याडि धनवान था और उसे सोना बनाने की धुन सवार हुई। सोना बनाने की ललक में उसने वर्षों तक विभिन्न प्रयोग किए और उन्हें लिखता गया। मगर, उसे सफलता नहीं मिली। उसकी सारी सम्पत्ति उस दीवानगी में स्वाहा हो गई। हताश होकर वह अपने लिखित पत्रों को लेकर नदी किनारे गया और एक-एक कर सारे पत्र नदी में प्रवाहित कर दिए।

किंचित दूरी पर एक नगरवधू स्नान कर रही थी। नदी का प्रवाह भी उसकी दिशा में था। उसने उन पत्रों को एकत्र किया और व्याडि के पास आकर उन पत्रों को जल में प्रवाहित करने का कारण पूछा। व्याडि की व्यथा सुनने के बाद नगरवधू बोली, ‘तुमने इस काम में इतने साल निकाल दिए। अब उसको अधूरा मत छोड़ो। मेरा सारा धन लेकर पुनः प्रयास करो।’

यह सुनकर व्याडि के हृदय में आशा का संचार हुआ। वह फिर से जुट गया। एक दिन एक विचित्र घटना घटी और व्याडि को अपनी ग़लती का अहसास हो गया। वह अपने परीक्षण के दौरान कुछ सामग्री अग्नि पर पका रहा था कि किसी ज्वलनशील पदार्थ से अचानक एक लपट उठी और उसके ललाट को छू गई। व्याडि को जलन महसूस हुई तो उसने थोड़ा तेल मल लिया।

कुछ देर बाद वह किसी काम से भट्टी के पास से उठने लगा तो हड़बड़ी में लकड़ी की एक खूंटी से उसका सिर टकरा गया। चोट भी जले हुए, उसी स्थान पर लगी और वहां से रक्त की कुछ बूंदें देग़ची में गिर गईं। जब देग़ची में खौल रहे रसायन पक गए तो व्याडि ने उन्हें ठंडा होने के लिए नीचे उतार दिया।

रसायन शीतल तो हुए किंतु अवस्था द्रव ही रही। खीझकर व्याडि ने उस पदार्थ को अपने शरीर पर मलना आरम्भ कर दिया। एकाएक उसका शरीर हल्का होकर हवा में तैरने लगा और वह धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठता चला गया। उसका शरीर इतना हल्का हो चुका था कि वो वायु संचरण के साथ बहने लगा।

आकाशचारी व्याडि जब विक्रमादित्य के महल के ऊपर से निकला तो राजा उस समय महल के प्रांगण में विचरण कर रहे थे। वायुगामी व्याडि ने राजा विक्रम को मुंह खोलने का संकेत किया। राजा कुछ समझे नहीं तो व्याडि ने अपने मुंह में भरी पीक को महल के आंगन में थूक दिया। विक्रमादित्य ने आश्चर्य से देखा कि थूके गए द्रव का रंग स्वर्ण आभायुक्त था। परीक्षण से पता चला कि वो ख़ालिस सोना था।

व्याडि की इस कथा के कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। सम्भव है, अलबेरूनी ने संपर्क में आए लोगों के मुंह से सुना होगा और उसे अपने यात्रा विवरण में लिख दिया।

जब सच में बन गया सोना!
जयपुर रियासत के सवाई माधोपुर ठिकाने के एक वकील साहब चांदी से सोना बनाने की विधि जानते थे। इस बारे में जानकारी देते हुए, उनके पुत्र ने बताया कि मुल्तान (अब पाकिस्तान) में हकीम अजमल ख़ां ने एक दरवेश की जलंधर बीमारी का इलाज किया था। इससे ख़ुश होकर दरवेश साहब ने उन हकीम साहब को चांदी से सोना बनाने का नुस्ख़ा बता दिया था। विभाजन से पूर्व पिताजी जब मुल्तान गए तो हकीम साहब ने उन्हें भरोसे का आदमी मानकर सोना बनाने का फ़ार्मूला बता दिया था। उस नुस्ख़े में पारा और सिंगरफ का उपयोग होता था तथा कंडों (उपलों) की आंच दी जाती थी।

सवाई माधोपुर लौटकर उन्होंने सोना बनाने का प्रयोग किया। प्रयोग के बाद उन्होंने देखा कि चांदी का रंग तो सोने जैसा हो गया है लेकिन उसमें वो गुणवत्ता नहीं आ पाई थी।

तब, वकील साहब ने अपने भाई को उन हकीम के पास मुल्तान भेजा तो पता चला कि उनकी हत्या उनके ही एक नौकर ने कर दी थी। नौकर को जब सोना बनाने की बात विदित हुई तो उसने भी वह फ़ार्मूला चाहा।

हकीम साहब उसे बताने को हरगिज़ तैयार नहीं हुए थे तो उस नौकर ने उन पर बंदूक़ दाग़ दी।

वकील साहब के पुत्र बताते हैं कि इस तरह सोना बनाने का सटीक नुस्ख़ा उन हकीम साहब के साथ ही दफ़न हो गया।

सोने के लालच में नरबलि

अलबेरूनी ने यह भी लिखा है कि सोना बनाने के लिए लोलुप मनुष्यों की मूर्खता की भी कोई सीमा नहीं थी। कोई उन्हें सोना बनाने का उपाय बताते हुए मासूम बच्चों की बलि देने की राय दे तो वे यह पाप करने से भी नहीं चूकेंगे।

ऐसा ही एक अमानवीय प्रकरण 15वीं सदी में ब्रिटेन में घटित हुआ था। तब तीन साल में सौ बच्चे गुम हो गए थे। उसके पीछे लावेल नामक एक सनकी व्यक्ति का हाथ नज़र आया।

लावेल को विरासत में अपने पिता से बेतहाशा धन मिला था। सोना बनाने की सनक में उसने भी व्याडि की भांति अपना सारा धन गंवा दिया था। उसकी शादी कैथरीन नामक एक धनाढ्य स्त्री से हुई। लावेल उसका धन भी उड़ाने लगा तो कैथरीन ने फ्रांस के शासक चार्ल्स सप्तम के दरबार में जाकर उस बात की शिकायत की। लेकिन उसकी सनक थमी नहीं और उसने एक प्रयोगशाला स्थापित की और घिनौने प्रयोग करने लगा।

किसी ने उसे शैतान की आराधना करने का सुझाव दिया और उसी उद्यम में वो नरबलि जैसे पैशाचिक कृत्य में लिप्त हो गया था। आख़िरकार, 27 अक्तूबर 1440 में लावेल को मौत की सज़ा सुना दी गई।

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