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सिद्धार्थ ने किन परिस्थितियों में किया था आत्मनिरीक्षण और बन गए थे ‘बुद्ध’?

सारनाथ के संग्रहालय में रखी गौतम बुद्ध की 475 ईस्वी में निर्मित प्रतिमा। - Dainik Bhaskar

सारनाथ के संग्रहालय में रखी गौतम बुद्ध की 475 ईस्वी में निर्मित प्रतिमा।

जब अंग्रेज़ भारत आए, तब वे हिंदू प्रथाओं से गड़बड़ा गए। उनके समाज में धर्म का सांचा बहुत अलग था- उसमें एक पुस्तक (बाइबिल), एक स्पष्ट लीडर (यीशु), एक संस्थान (चर्च) और पोप तथा पादरी रूपी प्रतिनिधि होते थे। अंग्रेज़ जिनसे भी परिचित थे, चाहे वे यहूदी साहूकार हों या इस्लामी साम्राज्य, सभी लगभग समान सांचों का पालन करते थे। इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म को समझने का निश्चय किया और ओरिएंटल सोसाइटी स्थापित की। इस संस्था ने अंग्रेज़ों के लिए वेद और गीता जैसे पवित्र हिंदू ग्रंथों का अनुवाद करवाया, इसके बावजूद कि वास्तव में मूल हिंदू धार्मिक प्रथाएं इन ग्रंथों से अलग थीं। उनकी खोजों में से एक धर्म (बौद्ध धर्म) ने यूरोपीय लोगों को मोहित किया, क्योंकि उसका सांचा यूरोपीय लोगों के मन में बसे धर्म के सांचे में बैठता था। बौद्ध धर्म में स्पष्टतया पारिभाषिक लीडर, मार्ग और संस्थान थे अर्थात बुद्ध, धम्म और संघ थे। बौद्ध धर्म के साहित्य में सिद्धार्थ गौतम के जन्म और मृत्यु की लगातार बात होती थी, जिससे विद्वान बुद्ध के जीवन का काल निर्धारित कर पाए। इससे बुद्ध ऐतिहासिक पात्र बन गए, विज्ञान में विश्वास करने वालों के लिए एक सच्चाई और इतिहास को मूल पाप से शुरू हुईं घटनाएं मानने वाले ईसाइयों के लिए मान्य। विद्वानों ने अनुमान लगाया कि बुद्ध, ईसा मसीह से पांच सदी पहले जीवित थे। उन्होंने बुद्ध को अक्सर प्रोफ़ेट कहकर संबोधित किया। वे जान गए कि 1,000 वर्षों की अवधि में बौद्ध धर्म के संपूर्ण एशिया में फैलने के बाद उसका प्रभाव घट गया था। उनका निष्कर्ष था कि भारत में यह क्षय ब्राह्मणों (जिन पर अंग्रेज़ शंका करते थे) और मध्य एशिया में मुसलमानों (जिनसे अंग्रेज़ घृणा करते थे) के कारण हुआ था। यह निष्कर्ष सच्चा था या युक्तिपूर्ण, हम कभी नहीं कह पाएंगे। लेकिन एशिया में जनसाधारण सदियों से बुद्ध को पूज रहा था। उनके लिए बुद्ध को ऐतिहासिक ठहराने की यह अत्यधिक यूरोपीय आवश्यकता मायने नहीं रखती थी। वे बुद्ध की उस धारणा को अधिक महत्व देते थे, जिस धारणा में कई अहम बदलाव आते गए। थेरवाद बौद्ध धर्म परंपरागत धारणा पर आधारित था; जिसे पहले चीन और फिर जापान तक फैलने वाले बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन संप्रदायों ने तिरस्कारपूर्वक "हीनयान' कहा। इन संप्रदायों में मिथकीय बोधिसत्व, जो न केवल ज्ञानी बल्कि दयालु भी थे, ऐतिहासिक बुद्ध से अधिक महत्वपूर्ण थे। जातक कथाएं शाक्य वंश के सिद्धार्थ गौतम के पूर्व जीवनों पर आधारित हैं। इन कथाओं के अनुसार सभी जीवनों में गौतम ने इतनी दयालुता दिखाई कि सृष्टि में सब कुछ और हर कोई उनका ऋणी बन गया। सृष्टि के इस ऋण को चुकाने के लिए सिद्धार्थ गौतम को सुंदर शरीर, बुद्धिमत्ता, अच्छा परिवार और बहुत संपत्ति दी गई। लेकिन इन सबका आनंद लेने के बजाय उन्होंने अपने भाग्य पर चिंतन किया। वे समझ गए कि जो उनके पास था, वो सबके पास नहीं था और उनकी संपत्ति का भी कभी न कभी अंत होना ही था। इसलिए उन्होंने इस पर चिंतन और आत्मनिरीक्षण किया। वे ज्ञानी बन गए। वे बुद्ध बन गए, वे जो प्रबुद्ध हैं। ज्ञान से उन्हें शांति मिली, लेकिन वे यह भी समझ गए कि अन्य लोग अशांत थे। इसलिए, वे दयालु बोधिसत्व बन गए, जिनकी कई भुजाएं उगीं और जिनसे वे प्रत्येक जीव तक पहुंचे। उन्होंने हर एक को अपने समयानुसार चिंतन कर इस बात को समझने में सक्षम बनाया कि क्यों भाग्य हमेशा बढ़ेगा और उसका क्षय भी होगा। अब उनके बग़ल में तारा बैठी थीं, वह स्त्रैण शक्ति जिसने बोधिसत्व में दयालुता उत्पन्न की और उन लोगों को स्वीकार करने के लिए विवश किया जो अब तक बुद्ध नहीं बने थे। पिछले हज़ार वर्षों में विविध हिमालयी राज्यों में बौद्ध धर्म तांत्रिक विचारों से घुल-मिलकर उनमें विलीन हुआ है। कई बुद्ध और बोधिसत्व उभरे। यह वज्रयान बौद्ध धर्म है अर्थात वज्र का मार्ग। गांधार संप्रदाय के भारतीय-यूनानियों ने शांत और मठवासी बुद्ध की सबसे पहली मूर्तियां बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के पांच सौ वर्ष बाद बनाईं। वज्रयान बौद्ध धर्म में बुद्ध इन प्रारंभिक मूर्तियों से बहुत अलग हैं।

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