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परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो जाए, लक्ष्य अधूरा नहीं छोड़ना है ...

बुद्धि-विवेक, भक्ति-भाव, शौर्य और सामर्थ्य जैसे गुणों का जब एकाकार होता है, तब हमारे अंतस में भगवान गणेश का अवतार होता है। आज हम भगवान गणेश के जीवन से, उनके व्यक्तित्व, उनके कृतित्व से वो पाठ सीखेंगे जो रहती दुनिया तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। बात उस समय की है, जब महर्षि वेदव्यास ‘महाभारत’ को लिपिबद्ध करने वाले थे। महाभारत को लिखने के लिए महर्षि वेदव्यास को किसी सहयोगी की ज़रूरत थी और वो सहयोगी बने बुद्धि और विवेक के स्वामी भगवान ‘श्री गणेश’! तय ये हुआ कि महर्षि व्यास श्लोक बोलेंगे और गणेश जी उन्हें लिखेंगे। महाभारत के लेखन का ‘श्री गणेश’ होने ही वाला था कि गणेश जी ने एक शर्त रख दी। गणेश जी ने महर्षि वेदव्यास से कहा, ‘महर्षि, मैं आपकी पुस्तक तो लिख दूंगा, लेकिन मेरी शर्त ये है कि आप एक के बाद एक श्लोक लगातार बोलते जाए, यानी मेरी क़लम रुकनी नहीं चाहिए। अगर मेरी लेखनी रुकी तो फिर मैं लिखना बंद कर दूंगा। महर्षि व्यास ने कहा, ‘हे गणपति, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद महर्षि व्यास लगातार श्लोक पर श्लोक बोलते जा रहे थे और गणेश जी अनवरत लिखते जा रहे थे। कहते हैं, एक बार लिखते-लिखते गणेश जी की लेखनी टूट गई। लेकिन गणेश जी अपने संकल्पों के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि रुकना उन्हें स्वीकार नहीं था। उन्होंने बिना देर किए अपना एक दांत तोड़ लिया और उसी को स्याही में डुबो-डुबोकर लिखने लगे। इसके बाद से ही वो ‘एकदंत’ कहलाए। इस प्रकार तीन साल के अनवरत लेखन के बाद उन्होंने एक लाख श्लोकों वाले ‘महाभारत’ जैसे विश्व के सबसे विराट महाकाव्य को लिपिबद्ध कर दिया। ये है श्री गणेश की अपने कर्म के प्रति प्रतिबद्धता, ये हैं उनकी अपने वचन के प्रति दृढ़ता। परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, लक्ष्य अधूरा नहीं छोड़ना। कितना बड़ा सबक़ है हमारे जीवन के लिए, हमारे कॅरियर, हमारी सफलता के लिए। ‘संकल्प की सिद्धि से पहले कोई विराम नहीं, कोई आराम नहीं’। स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा है- ‘उठो, जागो और तब तक न रुको, जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाए’। यहां मुझे वीर बजरंगबली का एक प्रसंग याद आ रहा है। माता सीता की खोज में जब हनुमान जी लंका जा रहे थे। वे आकाश में उड़ते हुए लगभग आधे सागर को पार कर चुके थे, तभी समुद्र के नीचे स्थित ‘मैनाक पर्वत’ उन्हें विश्राम देने के लिए उभरकर ऊपर आ गया और हनुमान जी से विनय करने लगा कि, ‘हे महाप्रभु, आप श्री राम के पावन कार्य के लिए 100 योजन समुद्र लांघ कर लंका जा रहे हैं, मुझ पर रुक कर थोड़ी देर विश्राम कर लीजिएगा।’ लेकिन प्रभु हनुमान के लिए राम काज विश्राम से लाखों गुना बड़ा था। बजरंगबली जी ने मैनाक पर्वत को प्रणाम किया, उस पर अपना हाथ रख कर उसका आभार जताया और ये कहते हुए आगे बढ़ गए, ‘भाई।! श्री राम का कार्य किए बिना मुझे विश्राम कहां।’ वापस लौटते हैं गणेश जी पर। भगवान गणेश को ‘गणपति’ भी कहा जाता है। गणपति यानी ‘जो ज्ञानेंद्रियों का स्वामी हो’। गणेश जी का व्यक्तित्व, उनके कृतित्व यानी कर्मों की तरह हमें बहुत कुछ सिखाता है। गणेश जी का बड़ा मस्तक हमें एक चिंतनशील, विचारवान व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करता है और उनके बड़े-बड़े कान, जिसके कारण उन्हें ‘गजानन’ भी कहा जाता है, हमें बताते हैं कि सबकी सुननी चाहिए, अच्छी-बुरी सब बातें सुननी चाहिए लेकिन निर्णय सदैव अपनी समझ के अनुसार ही करना चाहिए। एक सफल व्यक्ति, एक सफल वक्ता बनने की पहली शर्त ही यही है कि आप एक सफल श्रोता और एक विचारवान व्यक्ति बनें। भगवान गणेश की पहचान का एक हिस्सा उनका बड़ा सा पेट है, इसीलिए उन्हें ‘लम्बोदर’ भी कहा जाता है। गणेश जी का पेट हमें सिखाता है कि जीवन की सफलताएं- विफलताएं, लाभ-हानि, अच्छी-बुरी बातें सबको पचा लेना चाहिए, क्योंकि ‘हमें बड़ा बनाने में सबसे बड़ा योगदान हमारी सफलताओं से ज़्यादा जीवन और समाज के प्रति हमारे संतुलन का होता है।’ गणेश जी की छोटी आंखें भी हमें सिखाती हैं कि हम बेशक कम देखें, लेकिन सटीक होंगे; यानी हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों संयमित और अपने टारगेट के प्रति ओरिएंटेड होने चाहिए।

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