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शादी करने जा रहे हैं तो अपने इन अधिकारों के बारे में जरूर जान लें


ताकि वैवाहिक जीवन सुखमय हो सक


शादी दो दिलों के साथ ही दो परिवारों का भी मिलन है, इसलिए विवाह तय करते हुए ऐसे हर पहलू पर ध्यान देना आवश्यक है, जिससे व्यक्ति के साथ ही परिवार या समाज प्रभावित होता हो। विवाह तय करते समय कुछ बातों को ध्यान में रखा जाए तो बाद में पछतावे से बचा जा सकता है। वर्ष 1955 में जब हिंदू विवाह कानून बना तो वह उस समय के हिसाब से माकूल था। समय के साथ-साथ विवाह कानूनों में संशोधन होते रहे। अब समाज में स्त्री-पुरुष काफी हद तक बराबरी की स्थिति में हैं तो दोनों के लिए समान कानून हैं।


दहेज की परिभाषा


'दहेज निषेध अधिनियम' 1961 के अनुसार 'देहज' वह है, जिसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चल-अचल संपत्ति, बहुमूल्य दस्तावेज, रुपए या सामान के रूप में एक पक्ष द्वारा दूसरे को विवाहपूर्व, विवाह के समय या बाद में दिया जाए, इस शर्त पर कि इसे न देने परविवाह नहीं हो सकेगा। यह सब वधू पक्ष यानी लड़की के पिता, रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों द्वारा दिया जाए और इसमें किसी तरह की धमकी शामिल हो तो वर पक्ष पर वर्ष 1986 से निर्धारित कानून के तहत मुकदमा चलाया जाएगा।


अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत इसके लिए पांच वर्ष तक का जुर्माना (कम से कम 15,000) या उतना जितना कि दहेज मांगा गया, लागू होगा। अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत देहज मांगना अपराध है, जिसकी सजा 6 महीने तक की हो सकती है। विवाह में दोनों पक्षों के रिश्तेदारों, घर वालों और मित्रों द्वारा उनकी मर्जी से दिए गए उपहार स्त्रीधन हैं और इन पर केवल वधू का अधिकार है।


घरेलू हिंसा कानून


शादी के बाद एक परिवेश से दूसरे परिवेश में जाने पर लड़कियों के सामने कई समस्याएं आती हैं। कई बार उसके साथ घरेलू हिंसा की शिकायतें भी की जाती हैं। ऐसे में यह जानना भी अनिवार्य है कि घरेलू हिंसा वास्तव में क्या है और अगर नियमित मारपीट की जाती हो तो उसके लिए देश में बकायदा एक घरेलू हिंसा कानून 2005 है। इसके तहत हर स्त्री आती है, चाहे वह घर की बेटी-बहू, नानी-दादी, चाची, पत्नी, बुआ, काम वाली बाई...ही क्यों नहो।


इसकी धारा 3 कहती है कि शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, मौखिक और यौन हिंसा होने पर स्त्री सरकार द्वारा नियुक्त सुरक्षा अधिकारी (धारा4) के पास जाकर शिकायत कर सकती है। शिकायत न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास निचली अदालत में की जाती है, जहां वह खुद भी मुकदमा कर सकती है। अगर स्वयं ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं है तो वह सुरक्षा अधिकारी द्वारा ऐसी शिकायत दर्ज करवा सकती है।


मैरिज रजिस्ट्रेशन : विवाह अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत अब शादी का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है। इसके लिए 'रजिस्ट्रार ऑफ मैरिज' के यहां विवाह को रजिस्टर कराना पड़ता है। विवाह की रजिस्ट्री दोनों पक्षों के हित में है। इसके जरिए सरकार के पास पूरी जानकारी उपलब्ध हो जाती है, ताकि पता चल सके कि कब और कहां किसका विवाह हुआ था। दरअसल, इस रजिस्ट्रेशन से विवाह में होने वाली धोखाधड़ी से भी लोगों को बचाने का प्रयास किया गया है। मैरिज सर्टिफिकेट एक बड़ा साक्ष्य है। नौकरी पाने, विदेश जाने और अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेजों में यह सर्टिफिकेट बहुत महत्वपूर्ण है।


अगर बात बिगड़ जाए... यदि किसी कारणवश पति-पत्नी एक-दूसरे से अलग रहने लगते हैं तो एक पक्ष दूसरे पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत वैवाहिक संबंधों की वापसी के लिए मुकदमा कर सकता है। यदि स्थिति इतनी बुरी हो कि साथ रहना मुश्किल हो तो धारा 13 के तहत इन आधारों पर तलाक लिया जा सकता है।


1. पति या पत्नी के रहते किसी तीसरे व्यक्ति से स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाने पर।


2. विवाह के पश्चात किसी एक पक्ष के शारीरिक और मानसिक क्रूरता करने पर।


 


3. एक पक्ष दूसरे को लगातार दो वर्षों के लिए छोड़कर चला गया हो।


4. यदि एक पक्ष ने अपने धर्म का त्याग कर किसी और धर्म का वरण कर लिया हो।


 


5. एक पक्ष मानसिक तौर पर विक्षिप्त हो और यह पागलपन इस हद तक हो कि दूसरे का उसके साथ रहना ही मुश्किल हो।


6. लाइलाज व संक्रामक रोग से ग्रस्त हो।


 


एनआरआई से शादी : 'नॉन रेजिडेंट इंडियन' यानी एनआरआई से विवाह करने के लिए कई बातों की जानकारी होना अनिवार्य है। अपने बुद्धि-विवेक से पता लगाया जाए कि व्यक्ति का वैवाहिक स्टेटस क्या है? क्या उसकी नौकरी वही है, जो उसने बताई है? उसकी कंपनी में पूछताछ करने के अलावा उसके पासपोर्ट-वीसा की जांच करें। विदेश में रहनेवाले संबंधियों से जांच कराएं। यहां विवाह के बाद उसका रस्ट्रिेशन ऑफ मैरिज होना अनिवार्य है।


(कमलेश जैन, सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता)


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