- भारतीय थलसेना प्रमुख जनरल उपेन्द्र द्विवेदी बता रहे हैं सैनिकों के यकीन से जुड़ी वो बातें, जो आपको भी प्रेरित करेंगी ऐसा भरोसा पैदा करने के लिए...
जब मैं एक युवा अधिकारी के रूप में अपनी यूनिट में पहली बार पहुंचा। तो मेरे साथी ने मुझे यूनिट की कुलदेवी की एक तस्वीर दी। वह सिर्फ एक तस्वीर नहीं थी, वह अपनापन, भरोसे और उस परंपरा का प्रतीक थी। इसमें व्यक्ति नहीं, पूरी टीम मिलकर एक आत्मा बनती है। मैंने सेना में यही सबसे पहले सीखा कि टीमवर्क सिर्फ एक शब्द नहीं, जीने का एक तरीका है।
मुझे लोग अक्सर पूछते हैं कि कोई सैनिक गोलियों की बौछार में क्यों कूदता है? मेरा जवाब सीधा होता है कि वह खुद से भी ज्यादा अपने साथियों पर भरोसा करता है। हम एक-दूसरे के लिए लड़ते हैं, एक-दूसरे के लिए जीते हैं और कई बार एक-दूसरे के लिए मरते भी हैं। यही विश्वास है, जो हमें हर डर से ऊपर उठा देता है।
बहादुरी कोई सुपर पावर नहीं होती। वह तब जन्म लेती है, जब आप खुद को भूलकर किसी बड़े विश्वास के लिए खड़े होते हैं। वह तब जन्म लेती है, जब टीम की रक्षा आपके अपने जीवन से ऊपर हो जाती है। सेना में मैंने महसूस किया कि यूनिट का धर्म ही अधिकारी का धर्म होता है। आपकी व्यक्तिगत इच्छा वहां कोई मायने नहीं रखती। आपके फैसलों का भार सिर्फ आपके कंधों पर नहीं, पूरी यूनिट की सांसों पर होता है।गलवान में कर्नल संतोष बाबू की शहादत मैंने सिर्फ एक लीडर के रूप में नहीं देखी बल्कि यह एक टीम के सामूहिक संकल्प का उदाहरण थी, जहां नेतृत्व, आस्था और टीम एक होकर असंभव को संभव बना देते हैं।
एक बार की बात है, एक्टर अनुपम खेर मेरे ऑफिस में आए थे। उन्होंने बातों-बातों में मुझसे पूछा कि आपने विजय 69 फिल्म देखी क्या? तब मैंने कहा कि मैंने अभी नहीं देखी पर जल्दी देखूंगा। उस फिल्म में मैंने देखा कि एक 69 साल का आदमी किसी नौजवान की तरह रेस में भाग रहा है। उस फिल्म ने मुझे सिखाया कि उम्र चाहे जो हो, अगर आपका लक्ष्य आपके सामने है तो आगे बढ़ने से कोई नही रोक सकता। एक अच्छा नेता वही होता है, जो अपनी टीम को खुद से आगे देखे। जो उनके साथ चले, उनके लिए खड़ा हो। नेतृत्व कोई पद नहीं होता, वह एक जिम्मेदारी होती है, एक परिवार को साथ लेकर चलने की। सच्चे नेता सवाल करते हैं, नवाचार करते हैं और परंपराओं को चुनौती देते हैं। प्रगति नए विचारों और बाधाओं को तोड़ने की हिम्मत पर ही टिकी होती है। सियाचिन में काम करते हुए मुझे ये समझ आया कि जितनी तकलीफें हम पर आती हैं उतना हमारी मानसिक ताकत बढ़ती जाती है और यही एक फौजी का मजबूत पहलू है।
सेना महज नौकरी नहीं बल्कि एक भावना है
हमारे देश में बहुत से युवा हैं, जो कुछ बड़ा करना चाहते हैं। मैं उनसे कहता हूं- बड़ा करने के लिए बड़े कदम जरूरी नहीं, बस साथ चलना सीखिए। मुझे हमेशा यह विश्वास रहा है कि टीमवर्क, अनुशासन, विश्वास और सहनशीलता- ये चार स्तंभ किसी भी सफलता की नींव होते हैं। चाहे वह युद्ध का मैदान हो या जीवन का। सेना सिर्फ नौकरी नहीं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचने वाली भावना है। मैं आगे बढ़ पाया क्योंकि मेरी टीम ने मुझे संभाला, मेरे डर से मुझे ऊपर उठाया और हर मोड़ पर मुझमें विश्वास रखा। यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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