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हिंदू संस्कृति में अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने को दिया गया महत्व

तस्वीर प्रतीकात्मक है - Dainik Bhaskar

पितृ पक्ष के दौरान किए गए श्राद्ध के अनुष्ठान में हिंदू अपने पितरों अर्थात पूर्वजों को पूजते हैं। दरअसल, केवल तीन (पिता, दादा और परदादा) पीढ़ियां पूजी जाती हैं। उनके पहले की पीढ़ियों को ‘अन्य’ पीढ़ियां समझा जाता है, मानो जैसे तीन पीढ़ियों के बाद परिवार से अपेक्षित है कि वह अपने पूर्वज का नाम तक याद न रखें। ऐसा करने से लोग अंततः इन पूर्वजों की यादों से मुक्त हो जाते हैं। भारतीय विचारधारा में और अतः हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों में ‘मुक्त करने’ की धारणा की मुख्य भूमिका है। हमें हमेशा कहा जाता है कि हमें भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। इसलिए परंपरागत रूप से भारत में समाधि की धारणा नहीं रही। शव का दाह संस्कार कर अस्थियों को नदी में विसर्जित किया गया। अपेक्षा यह थी कि आत्मा वैतरणी नदी पार करके मृतकों के लोक जाकर जल्द से जल्द धरती पर पुनर्जन्म लेगी। समाधियां केवल उनके लिए बनाई गईं जिन्होंने उत्कृष्ट जीवन जीकर पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त की थी, जैसे बुद्ध और विभिन्न वैदिक आचार्य। आम आदमी से अपेक्षित था कि किसी की मृत्यु के बाद वह उसकी यादें भुला दें। यह मान्यता थी कि यादें आत्मा को पुनर्जन्म के चक्र में फंसाकर बौद्धिक और भावात्मक विकास में बाधा का निर्माण करती हैं। भारतीय संस्कृति में शरीर से अधिक आत्मा को महत्व दिया जाता है और इसलिए यह माना गया कि यादें लौकिक होती हैं, जो देश और काल से सीमित होती हैं, जिस कारण उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। इसलिए हिंदू विचारधारा में इतिहास को इतना महत्व नहीं दिया जाता है। विचार राजाओं और घटनाओं से अधिक महत्वपूर्ण हैं और विचारों का पुनरावर्तन होता है। इसलिए भारत में जब हम इतिहास की बात करते हैं तो उसमें न केवल हिस्ट्री का बल्कि जो ‘पहले था, अब है, और जो आगे होगा’ उसका भी समावेश होता है। इस प्रकार, इतिहास सनातन धारणाओं से संरेखित है, जो भारतीय विचारधारा का आधारस्तंभ है। संभवतः, हिस्ट्री के लिए तिरस्कार और उदासीनता का कारण पुनर्जन्म में विश्वास है। यदि हम अनगिनत जीवन जीते हैं, तो क्या किसी एक जीवन की घटनाएं मायने रखती हैं? चिंतन करके यह बात समझना कि प्रत्येक जीवन में सनातन सिद्धांत रूप लेते रहते हैं, ही सबसे महत्वपूर्ण बन जाता है। यूनानी, चीनी, अरबी, मंगोली और अंग्रेज़ी विश्वदृष्टियां इसके बिलकुल विपरीत हैं। इन सभी सभ्यताओं का एक जीवन में विश्वास था और इसलिए उनके लिए यह एक जीवन मायने रखता था और उसकी घटनाएं मायने रखती थीं। इसलिए, उन्हें ध्यानपूर्वक दर्ज करना आवश्यक था। इस प्रकार हिस्ट्री ने रूप लिया। मृतकों के लिए क़ब्र और स्मारक बनाए जाने लगे। भारत में लोग आख्यानों को अधिक महत्व देते हैं। गांव के लोग अपने पूर्वजों के बारे में कम और वह गांव रामायण व महाभारत से कैसे जुड़ा है, उसके बारे में ज़्यादा जानते हैं। भारत भर में ऐसे कई तालाब हैं, जिनमें राम ने स्नान किया था और कई गुफ़ाएं हैं, जहां पांडवों ने आश्रय लिया था। लोग इनके बारे में गर्व से बात करते हैं। लेकिन अपने ‘अन्य’ पूर्वजों द्वारा बनाई इमारतों के बारे में कोई शायद ही कुछ कहता है। कुछ समुदायों में, ख़ासकर राजस्थान में, वंशावली दर्ज करने की प्रथा अवश्य है। यूनानियों के बाद हुन और शक समुदाय इस क्षेत्र में बस गए थे और यह प्रथा उनके साथ आई। तीर्थस्थलों पर भी पंडे वंशावली दर्ज करते हैं। लेकिन ज़्यादातर हिस्ट्री को इतना महत्व नहीं दिया जाता है। यदि यूनानी, चीनी और अरब लोगों ने भारत के साथ उनके संपर्क दर्ज नहीं किए होते तो भारत की हिस्ट्री के बारे में शायद कोई नहीं जानता। पवित्र साहित्य में हमें राजाओं की लंबी वंशावलियां मिलती हैं, जिनके अनुसार राजाओं के पूर्वज स्वयं देवता हैं। जितने ग्रंथ हैं, उतनी ही वंशावलियां भी हैं और सभी में बहुत अंतर है। विद्वानों ने पुराणों में पाई गई जानकारी के आधार पर भारत की हिस्ट्री जानने की कोशिश की है। लेकिन वे असफल रहे हैं। इन वंशावलियों का उद्देश्य ग्रंथ बनवाने वाले राजा को सूर्यवंशी या चंद्रवंशी निर्धारित करना था। आज भी अधिकांश राजसी राजपूत परिवार अपने आप को सूर्यवंशी मानते हैं, जबकि पूर्व और दक्षिण भारत के कई राजसी परिवार स्वयं को चंद्रवंशी मानते हैं। इन वंशावलियों ने राजाओं के इस दावे का समर्थन किया कि उन्हें राज करने का ‘दैवी अधिकार’ है।


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