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धार्मिक पहचान स्थापित करने के लिए भोजन भी बना शक्तिशाली साधन!

पिछले हफ्ते हमने भारतीय रसोईघर और उससे मिलने वाले सबकों को लेकर चर्चा की थी। आज इसी चर्चा को जारी रखेंगे। रसोईघरों में मसाले के डिब्बे होते हैं। प्रत्येक डिब्बे में मसाले एक जैसे होते हैं। लेकिन हर रसोइया उनकी मात्रा बदलकर व्यंजन का स्वाद बदल देता है। किसी एक मसाले की मात्रा बदलकर किसी बेस्वाद व्यंजन को जायकेदार बनाया जा सकता है। इस प्रकार, थोड़ी रचनात्मकता से सबकुछ संभाला जा सकता है। आजकल तैयार मसालों के पैकेट मिल रहे हैं, इसलिए इन मसालों से बने व्यंजनों का स्वाद भी लगभग एक जैसा होता है। क्या यह पाश्चात्यीकरण का संकेत है? विश्व के अधिकतर भागों में लोग आंच के इर्द-गिर्द बैठकर भोजन करते थे। रेगिस्तानों में आंच पर पके हुए मांस को काटकर रोटी पर परोसा जाता था। ठंडी जगहों में आंच के ऊपर एक मटका टांगा जाता था। दिनभर जो भी इकठ्ठा किया जाता था, उसे उस मटके में डाला जाता था। इस तरह सूप और स्टू बनने लगे, जिन्हें लोग ब्रेड के साथ खाते थे। इस्लामी देशों में समानता और भाईचारे के भाव पैदा करने के लिए सारा खाना एक ही बर्तन में परोसा जाता था। पंजाब के ग्रामीण भागों में महिलाएं भोर के समय कुएं के पास मिलकर पानी निकालती थीं और वैसे ही शाम को सामूहिक चूल्हे पर मिलकर रोटी बनाती थीं। मिलकर खाना बनाने की इस परंपरा से ‘सांझा चूल्हा’ की अवधारणा पैदा हुई। चीन में सारा खाना मेज़ के बीच में रखा जाता था और सभी एक साथ खाते थे, जो एकता का प्रतीक था। यूरोप में भोजन को मेज़ के बीच परोसा जाता था और आप वो खाते थे, जिस तक आप पहुंच सकते थे या जो आपका पड़ोसी आप तक पहुंचा देता था। बफ़े की शुरुआत यहीं से हुई, जहां हर कोई अपने लिए परोसता है और वह सभी व्यंजनों तक पहुंच सकता है। फिर जैसे-जैसे लोग धनवान होते गए, वैसे-वैसे उन्होंने खाना परोसने के लिए नौकरों को काम पर लगाया। 16वीं सदी में छुरियों और कांटों का उपयोग लोकप्रिय बन गया। इसके पहले सभी लोग हाथों से खाते थे। भारत में खाना हमेशा थाली में परोसा जाता था, जो या तो पत्तों की होती थी (बायोडिग्रेडेबल होने के कारण ऐसी थाली फेंकी जा सकती थी) या धातु की होती थी (बायोडिग्रेडेबल नहीं होने के कारण ऐसी थाली धोनी पड़ती थी)। सभी लोग अलग-अलग थालियों में खाते थे, जिससे ‘जूठन’ की धारणा सुदृढ़ बनी। महिलाएं पहले पुरुषों और फिर बच्चों को परोसती थीं और उनके बाद ही खाती थीं। यह पदानुक्रम निर्धारित था। भारत में अच्छा खाना क्या है, उसे भी अक्सर जाति वर्गीकरण से निर्धारित किया गया: उच्च वर्ग के लोग ब्राह्मणों द्वारा घी में पकाए हुए खाने को पसंद करते थे। इसलिए, राजसी और धनवान घरों में ‘महाराज’ खाना पकाने लगे। इन घरों में ‘महाराज’ का दर्जा घर के सदस्यों से भी ऊंचा होता था और इसलिए रसोईघर के चूल्हे पर घर की महिलाओं से भी अधिक अधिकार ‘महाराज’ का होता था। अधिकतर संस्कृतियों में भोज त्योहारों तथा विवाह, जन्म और मृत्यु जैसी यादगार घटनाओं से जुड़ गए। धार्मिक और सामुदायिक पहचान को स्थापित करने के लिए भोजन भी एक शक्तिशाली साधन बन गया। यहूदियों ने कोशर खाने से अपनी पहचान बनाए रखी। इस्लामिक घरों में रमज़ान में लोग दिनभर रोज़ा रखते हैं और सांझ होते ही खजूर खाकर रोज़ा तोड़ते हैं और फिर रात में भोज करते हैं। कई ईसाई घरों में ‘लेंट’ के दिनों में अंडे या मछलियों का सेवन नहीं किया जाता है। लेंट ख़त्म होते ही ईस्टर के बाद अंडों का सेवन बढ़ता है। श्रावण व कार्तिक के महीनों में वे हिंदू भी शाकाहारी बन जाते हैं, जो अन्य दिनों में मांस का सेवन करना पसंद करते हैं। शुक्रवार के दिन खट्टा नहीं खाया जाता है, ताकि गृहस्थी को संतोषी मां की याद दिलाई जा सके। यदि घर में किसी का निधन होता है तो कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलाया जाता है। हिंदू शिव को कच्चा दूध, कृष्ण को मक्खन और देवी को नींबू अर्पित करते हैं। इस प्रकार अनुष्ठानों के माध्यम से खाना महत्वपूर्ण बन जाता है। पश्चिम में कोर्सेस में खाना परोसा जाता है। उदाहरणार्थ, फोर कोर्स खाने में पहले सूप परोसा जाता है, फिर सलाद, फिर मेन कोर्स और अंत में मीठा। लेकिन भारतीय थाली में सलाद, चावल, रोटी, सब्ज़ी, मिठाइयां, चटनी और पापड़, सभी एकसाथ परोसे जाते हैं। इस तरह, पश्चिम में भोजन ‘रैखीय’ तरीक़े से जबकि भारत में वह ‘चक्रीय’ तरीक़े से परोसा जाता है। पाश्चात्य खाने में मांस को काटने और फिर कांटे से खाने के लिए हाथ रैखीय तरीक़े से हिलता है, जबकि भारतीय खाने में रोटी तोड़ने या चावल में दाल मिलाने में हाथ चक्रीय तरीक़े से हिलता है। भारतीय व्यंजन एक-एक करके नहीं, बल्कि एक साथ मिलाकर खाए जाते हैं, जो विशिष्ट रूप से भारतीय प्रथा है। इस तरह पाश्चात्य पाकशैली में हम रसोइए का खाना चखते हैं, जबकि भारतीय पाकशैली में हम अपने आप मिश्रित खाना चखते हैं। क्या इससे ज़्यादा व्यक्तिगत कुछ हो सकता है? और क्या इसकी वजह यह हो सकती है कि भारत के लोग समूह में काम करना पसंद नहीं करते हैं?

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