Header Ads Widget

Responsive Advertisement

मनुष्य के लिए प्रकृति से श्रेष्ठ मित्र भला कौन होगा!

 

  • किसी वन प्रांतर में फिरना, नदी में ग़ोता खाना, पर्वतों में उगते-छिपते सूर्य को ताकना या शीतल समीर का देह से आ लिपटना हमारे रोम-रोम को झंकृत कर जाता है। निविड़ प्रकृति के सान्निध्य में देह की आदिकालीन चिरस्मृतियां जाग उठती हैं, आत्मा उछाह से भर जाती है, क्योंकि मानव इसी प्रकृति का एक ऐसा हिस्सा है जो उससे बिछड़ा-सा रह गया है। इसलिए प्रकृति के सामीप्य की यह यात्रा शाश्वत रहनी चाहिए।

सदियों से यात्राओं का उत्कंठ प्रेमी रहा है मानव मन! कुछ नया जानने की ललक, कुछ नया पाने की आस ने इंसान से दूर-दूर तक की यात्राएं करवाई हैं। अपनी जिज्ञासा के समाधान में ख़ूब लम्बे रास्ते नापे गए हैं। जो प्राप्त है उससे अलग प्राप्य की वांछा ने यात्राओं पर कभी विराम नहीं लगने दिया। यात्राओं को लेकर उसकी दीवानगी इतनी रही कि अकेले अपने दम पर चल पड़े यात्रियों ने भी एक-एक करके इतने देश-द्वीप खोज लिए जिनसे हमारे ग्लोब ने वर्तमान रूप ले लिया।

दरअसल, एक ही तरह से एक ही परिस्थिति में लम्बी अवधि तक ना जीने का आदी मन अक्सर ही व्याकुलता से भर उठता है। एकरसता उसे उबाने लगती है। उसकी ऊर्जा का ह्रास करती है। उससे उबरने का तब एक ही आसान रास्ता उसे नज़र आता है कि अपने जीवन का चक्का वो किसी अन्य राह पर थोड़ी देर के लिए घुमा दे। इस क्रम में पहाड़ों पर लगातार तंग रास्तों पर चढ़ते-उतरते रहने वाला मन मैदानों की समतल भूमि को लालसा की दृष्टि से ताकता है। मैदानों के सपाट जीवन‌ से ऊबकर मन पहाड़ों के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चढ़ाई चढ़कर जीवन में रोमांच लाना चाहता है। समुद्र तट पर रहने वाला, शोर मचाती उठती-गिरती लहरों से पीछा छुड़ा दूर कहीं जंगलों की शांति में खो जाना चाहता है। नदी किनारे का भीगा मन रेगिस्तान की रेत में सूख जाने को मचल पड़ता है तो रेगिस्तान में रहता दिल बर्फ़ में धंस जाने के लिए दौड़ लगा देता है। ऐतिहासिक स्थलों से घिरा मन समंदर किनारे की नम रेतीली ज़मीन पर जा बिछना‌ चाहता है और सामान्य-से शहर में बसा बावरा बटोही ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहरों वाले शहरों की सैर पर निकल जाने के कार्यक्रम बनाता है। शहर में रहते हुए खेत, जवार, कुएं, ओसारे उसको हांक मारते हैं तो देहात में रहते मन को शहर की चकाचौंध पूरे ज़ोर से अपनी ओर खींचती रहती है।

स्वाभाविक है कि किसी अनजान शक्ति द्वारा निर्मित इस सृष्टि में अपने हाथों गढ़ी छोटी-सी एक कृत्रिम दुनिया में उलझा कोई त्रस्त मन जब अपनी रोज़मर्रा की आपाधापी वाली ज़िंदगी से निजात पाने के लिए कहीं जाना चाहेगा तो उसकी मंजि़ल उसकी दुनिया की परिधि के बाहर बिखरी क़ुदरत की कोई सैरगाह ही बनेगी। प्राकृतिक सुंदरता का कोई तोड़ नहीं। समूची मानव सभ्यता मिलकर भी प्रकृति के किसी एक रंग को हू-ब-हू किसी कैनवास पर उतार नहीं सकती। जो सुंदरता, सौम्यता, सुकून और सुहानापन प्रकृति में है वो और कहीं उपलब्ध नहीं। यही कारण है कि लोगों की अधिकांश यात्राओं के ठिकाने प्रकृति के कोई ना कोई हिस्से ही होते हैं। वहीं वो सुख-चैन पाता है, आनंदित होता है।

ऐसे ही मन की किसी उत्तप्त अवस्था में अपने वियतनाम प्रवास के दिनों में हम एक दिन हनोई से सापा की ओर निकल गए थे। सापा क्या है! धानी रंग की एक ऐसी चुनरी जिस पर रंग-बिरंगे फूलों के असंख्य छीटें हैं- जिसे देखते ही झट ओढ़ लेने को मन करता है। अपने होटल में घुसते हुए हमने देखा था थोड़ी दूरी पर बग़ल से एक सीधी, तीखी ढलान वाली सड़क नीचे उतरती जा रही है। हम उसी ढलान के सहारे नीचे गए जहां कैट-कैट विलेज है। एक जनजातीय गांव। यहां से हरियाली ओढ़े पहाड़ों के दिलकश नज़ारे,‌ चारों ओर दैत्याकार सीढ़ीनुमा धान के खेत और पहाड़ों के पैरों को चूमने की भरपूर कोशिश में लगे बादल, हवा के साथ झूमते फूलों के पौधों को मन में उतारते हुए, जगह-जगह फूटे सोतों के पानी को पैरों से उछालते हुए, आसपास झरनों के गिरते पानी की कलकल की आवाज़ सुनते हुए लगातार कुछ किलोमीटर आगे चलते चले जाने पर हम ता वान गांव जा पहुंचे थे।

यहीं हमारा ठिकाना था।

यहां आकर पता चला कि एक फूल के तौर पर कमल के प्रति वियतनामियों की आसक्ति हमसे कई गुना अधिक है। पग-पग पर जहां-तहां खिले कमल मन को गुलाबी रंगत से भरते रहते हैं, कोस-कोस पर कमल से लबालब भरे ताल लहराते हुए अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं।

इन फूलों को देखकर सहसा फूलों की घाटी की याद हो आई। बरसों पहले वहां जाने के लिए क़दम उठाए थे। राह संकरी ही नहीं दुर्गम भी थी। बहुत लम्बी और घुमावदार भी। ऊपर से तुर्रा ये कि बहुत ऊबड़-खाबड़ और रपटीली भी हो रही थी। चले तो थे सब अपने-अपने रास्ते ही, पर चलते-चलते भांति-भांति के लोगों का एक बड़ा-सा कारवां बनता गया। विभिन्न वय, स्थान और रुचि के राही। गंतव्य पर पहुंचे तो पाया जैसे जन्नत हो सामने। फूलों की घाटी का विहंगम दृश्य। चहुंओर रंग-बिरंगे फूलों की छटा पसरी हुई थी। उन फूलों की देह से उठती सुगंध से सराबोर सरसराती हवा। जो हर आती सांस को एक नई निराली महक से महका जाती। हर झपकती पलक पर एक नए रूप, रंग, आकार के फूल का सामने आकर डोल जाना।

एक पुष्प प्रेमी ने फूल तोड़कर अपनी प्रिया को बड़े प्रेम से थमाया। तो दूसरे ने कुछेक फूल तोड़ अपनी किताब में यादगारी के तौर पर सहेज लिए। एक ने अलग-अलग तरह के कई फूल तोड़े, उन्हें ज़मीन पर क़रीने से बिछाकर उनकी संरचना परखी, उसके विवरण अपनी डायरी में नोट किए। एक कवि हृदय ने अभिभूत हो इन फूलों को केंद्र में रख नानाविध तरह के गूढ़ प्रतीकों, बिम्बों की मदद से एक कवित्त जाल रच लिया। इधर कोई फूलों पर भूला-बिसरा क़िस्सा याद कर सुनाने लग गया। उधर इन सबसे अलग एक भाई खट-खट तस्वीरें खींचने में मगन थे।

एक बहन फूलों की चित्रकारी करने में मशगूल हो गई थी। एक मोहतरमा संस्मरणों की अपनी किताब के लिए आज के फूलों को ढालने में बड़ी गम्भीरता से रमी हुई थीं।

इन सबके बीच एक आठ-नौ साल की शोख़-सी बच्ची अपनी धुन में इधर से उधर घूम रही थी। तितली की तरह वो एक फूल पर ठहर जाती। उसे नाज़ुक हाथों सहलाती, गहरी सांस उसे सूंघती, उसके कानों में जाने क्या बातें फुसफुसाती। कभी खनककर हंसती, कभी उछलकर ताली बजाती, जैसे उस फूल ने उसके मन की कोई बात उससे कह दी हो। उससे जी-भर गपशप कर लेने के बाद फिर वो फुदकती हुई आगे वाले फूल पर जा टिकती, उससे दोस्ती गांठने। वहां भी ठीक यही सब दोहराती। उसका ये फितूरपन अथक चलता रहा। जाने कितने पक्के दोस्त उसने यहां चुटकी बजाते ही बना लिए थे।

प्रकृति से श्रेष्ठ मित्र भला कौन हो सकता है!

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ