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भारतीय पुरातत्व के जनक हैं अलेक्ज़ेडर कनिंघम, मात्र 21 वर्ष की उम्र में खोजा था सारनाथ स्तूप

  • एक अंग्रेज़ अफ़सर जिसका मन भारत के खंडहरों में रमा, फ़ौजी होकर भी वह विश्वविख्यात खोजी हुआ। एक अनपका खोजी जिज्ञासाओं के तल में इतना गहरा उतरा कि भारतीय पुरातत्व का जनक बनकर निकला।

उन दिनों काशीनरेश चेतसिंह के दीवान बाबू जगतसिंह अपने नाम पर जगतगंज का बाज़ार बनवा रहे थे। बनारस से दो-ढाई कोस बाहर सारनाथ नाम के स्थान पर एक टीले के पास उजाड़ों का एक घेरा था। उस जगह उन्होंने कुछ खम्भे गिराकर कमठे के लिए ईंट भाटे उठवाए। इस दौरान वहां उनके कामगरों को हरे मार्बल की एक मंजूषा मिली। इस पिटारी में एक और डिबिया थी, जिसमें कुछ अस्थियां और कुछ मोती पड़े थे। दीवान ने अस्थियां ससम्मान गंगाजी में बहा दीं और डिब्बी वहां के एक अंग्रेज़ अधिकारी डंकन को सौंप दी। धर्मभीरु मजूरों ने भी दूजी चीज़ों को हाथ लगाया नहीं।

इस बात पर शहर में चर्चे हुए तो काशीवासियों का ध्यान इस स्थान की ओर गया। यहां कुछ खम्भे, एक स्तूप और एक चौखंडी इमारत थी। हिंदुओं ने तो इस जगह को लेकर कोई ख़ास कुतूहल नहीं दिखाया, लेकिन बनारस के जैन, अंग्रेज़ अफ़सरों के पास पहुंच गए। सारनाथ ग्यारहवें जैन तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि है। सो, तब वहां के दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में विवाद शुरू हो गया। दोनों दावा करते थे कि यहां का बड़ा स्तूप उनका खड़ा किया हुआ है। वे चाहते थे कि कोई अंग्रेज़ यह ढांचा खोले और उनकी रार मेटे (विवाद को ख़त्म करे)। कई बरस विवाद बना रहा।

नौसिखिया और जुनूनी कनिंघम

फिर यह काम किया अलेक्जेंडर कनिंघम ने। 1835 ईस्वी की जनवरी में। वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल की फ़ौज का एक लपटन था। लेकिन साथ ही जेम्स प्रिंसेप के प्रभाव से पुरातत्व की पड़ताल में भी रंगरूट हो चुका था। निपट नौसिखिया, पर जबर जुनूनी। सौ फीट ऊंचे इस स्तूप के सहारे मचान लगा ऊपर चढ़ा। मिर्जापुर के चुनार से पत्थर तोड़ने वाले मजूर लाया और खुदाई शुरू करवाई। स्तूप के शिखर से पांच हाथ गहरे उसे एक शिलालेख मिला। इस पर लिखे अक्षरों का आकार ऐसा मानो आड़ी-टेढ़ी छड़ियां पड़ी हों। कनिंघम समझ गया कि यह ब्राह्मी है। यह लिपि उसका मेंटर प्रिंसेप उन दिनों डिकोड करने में लगा था। लेख की नक़ल कलकत्ते भिजवाई गई। प्रिंसेप ने पढ़ा और पाया कि लेख में ‘ये धर्मा हेतु’ नामक धारणी थी- बौद्धों का एक मंतर।

उस समय, सिवा यह सिद्ध करने के, कि यह बौद्ध स्थल है और कम से कम हज़ार बरस पुराना है, कनिंघम ज़्यादा कुछ कर न सका। इस बीच फ़ौज की ड्यूटी बजाने उसे पहले कलकत्ता और फिर कश्मीर जाना पड़ा। खंडहरों की खोज फिर छूट गई।

आख़िर मार्ग मिल ही गया

कुछ साल बाद कनिंघम को कुछ नई छपी किताबें मिलीं। इनमें दो चीनी भिक्खुओं फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांतों के फ्रेंच और अंग्रेज़ी उल्थे थे। ये दोनों भिक्खु क्रमशः पांचवीं और सातवीं सदी में भारत आए थे। इन अनुवादों से कनिंघम को मालूम हुआ कि सारनाथ साधारण बौद्ध स्थल नहीं है। मिगदाय में, जहां धमेख स्तूप खड़ा है, वहीं बुद्ध ने प्रथम उपदेश दिया था। वहीं कौण्डिन्य के ‘विरजं वीतमलं धम्मचक्खु’ उघड़े थे। कनिंघम की भी आंखें खुल गईं। मार्ग मिल गया।

उसने तय किया कि ज्यों बड़ा प्लिनी मकदूनियाई महीपति सिकंदर के मार्ग चला था, त्यों वह चलेगा इन भिक्खुओं के पग-पग। खोजने उन स्तूपों, विहारों और चैत्यों को, जो अब उजाड़ हैं।

स्वर्ग की सीढ़ियों की खोज

फाह्यान ने अपने यात्रावृत्त में सेंग-किआ-शी नामक एक स्थान का उल्लेख किया है। माना जाता है कि शाक्यमुनि अपनी माता महामाया को धम्म सिखाने तुशिता नामक स्वर्ग गए थे। पुनः जब वे जम्बूद्वीप लौटे, तो सेंग-किआ-शी में उतरे। विश्वकर्मा की बनाई गहरी नीली लाजवर्द की सीढ़ियों से। फाह्यान ने इस जगह बने स्तूप के दर्शन किए थे। उसने यह जगह कन्नौज के पास बतलाई है।

कनिंघम उन दिनों फ़ौज के काम से कन्नौज ही था। उसने स्वर्ग की इन सीढ़ियों को खोज निकालने का निश्चय किया। ड्यूटी से टैम निकालकर अपने हिंदुस्तानी मुंशी को साथ ले वह कन्नौज के आस-पास भटकने लगा। अट्ठाईस कोस उत्तर पश्चिम में उसे एक बस्ती मिली। नाम संकिशा। बस्ती में मुश्किल से पचास घर, लेकिन ईंटों के उजाड़ का घेरा छह मील का। मुंशी बोला यह तो कन्नौज से भी बड़ा है। कनिंघम को सेंग-किआ-शी का संकिशा से साम्य बिठाने में देर नहीं लगी।

वह इन खंडहरों में और पुख़्ता खोज करना चाहता था। लेकिन लश्करी लपटन एक जगह कितने दिन ठहरे। उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के बड़े साहबों को बहुत-सी चिट्ठियां लिखीं। ऐसी दूसरी जगहों की खोज से जुड़ी एक नई नौकरी के लिए, ताकि वह पूरे वक़्त पेशेवर ढंग से यही काम कर सके। उसने कहा कि टैम हो और टका हो तो वह और अच्छा परिणाम दे सकेगा। पर उस वक़्त किसी ने उसकी सुनी नहीं। सो, पहले की तरह मौक़ा मिलने पर वह फ़ौजी से खोजी बनता रहा।

बौद्ध साहित्य में ढूंढा इतिहास

1851 में जब वह सेंट्रल इंडिया में था, तब उसने भिलसा (विदिशा) के आसपास छोटे-बड़े कुल सत्ताईस स्तूप खोले। यहीं सांची के एक छोटे स्तूप में उसे दो मंजूषाएं मिलीं। इनमें तथागत गौतम के दो प्रधान शिष्यों के अस्थि अवशेष थे। धम्मसेनापति गौरवर्णी सारिपुत्त और ऋद्धिमान नीलवर्णी महामोग्गल। इनके अलावा स्तूपों में अन्य भिक्षुओं की स्मृतियां भी थीं।

‘द भिलसा टोप्स’ किताब में उसने यहां की प्राप्तियों को बौद्ध साहित्य से जोड़कर लिखा। यह पहला बड़ा प्रामाणिक ग्रंथ था, जिसने बौद्ध साहित्य में से इतिहास छानने का प्रयास किया था।

पुरातत्व सर्वेक्षक के रूप में...

1861 में कनिंघम सैंतालीस साल की उमर में सेना से रिटायर हो गया। मेजर जनरल की पोस्ट से। उसी साल उसकी पुरानी अर्जियां मंज़ूर हो गईं। लॉर्ड कैनिंग ने उसे भारत सरकार का आर्कियोलॉजिकल सर्वेक्षक नियुक्त कर दिया। साढ़े चार सौ रुपये महीने की पगार और फील्ड में काम करने पर ढाई सौ रुपये अलग से। अब उसे उजाड़ों पर ख़ुद से ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं थी। इस पद पर वह पांच साल रहा। इन पांच सालों में उसने पश्चिम से पूरब, पूरा भारत नाप लिया।

बासठ में उसने खोजी वैशाली। जहां एक वानर ने बुद्धदेव के भिक्षापात्र को मधु से पूर दिया था। कहते हैं कि सुगत ने जब उसका यह उपहार स्वीकार किया तो वह कपि प्रसन्न हो बहुत देर तो उच्छरता फिरा, फिर एक खड्ड में गिरकर मर गया। कनिंघम ने ह्वेनसांग का लिखा पढ़कर वह खड्ड भी खोज निकाला। इसी के किनारे उसे कूटागार भवन मिला जहां तथागत ने 3 माह में देह छोड़ देने की घोषणा की थी। आगे कनिंघम कुशीनारा गया। गौतम के महापरिनिर्वाण का स्थान। उसने वह शालवन चिह्नित किया, जहां मल्ल छह दिनों तक भगवत् का निष्प्राण शरीर पूजते रहे थे।

बढ़ती उम्र, जुड़तीं उपलब्धियां

1863 में वह सहेठ-महेठ नामक जगह पर पहुंचा। महेठ में उसे श्रावस्ती मिली, जहां बुद्ध ने बिताए थे चौबीस चौमासे। यहीं मोक्षदेव ह्वेनसांग की अंगुली पकड़ वह अंगुलिमाल के बनाए स्तूप तक पहुंचा। सहेठ का समीकरण उसने जेतवन से बिठाया, जो सावत्थी के सेठ सुदत्त ने मोल लिया था, पूरी अठारह कोटि स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर।

1864 में उसने चीन्ही तक्षशिला। यहां उसे थोड़ी दुविधा हुई। प्लिनी कहता था कि यह सिंधु से दो दिन की दूरी पर है, जबकि ह्वेनसांग कहता था कि पूरे तीन दिन लगते हैं। अंत में चीनी भिक्खु की ही बात सही निकली और यह मिली उसे सिरकप-सिरसुख के टीलों में।

1865 में पैसों की क़िल्लत बता उसकी पोस्ट ख़त्म कर दी गई। लेकिन तब तक वह बीसियों बौद्ध स्थान भारत के नक़्शे पर उकेर चुका था। लंदन पहुंचकर उसने अपनी इन खोजों के आधार पर ‘द एंशिएंट ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया’ लिखी। यह भारत के उस भूगोल का चित्रण था, जिस पर बौद्ध धर्म फला-फूला।

1871 में लॉर्ड मेयो ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) नाम से एक अलग विभाग बना दिया। कनिंघम को वापस बुलाकर इसका प्रथम डायरेक्टर जनरल नियुक्त किया गया। इस पोस्ट पर काम करते हुए वह अगले पंद्रह बरस और भारत में रहा। इन पंद्रह बरसों में कनिंघम रह-रहकर उन साइट्स पर लौटता रहा। टीलों को टटोलने, खंडहरों में छिपा बेशक़ीमती ख़ज़ाना खोजने। अमूमन उसके हाथ कभी ख़ाली नहीं रहे। कहीं कोई मूरत, कहीं कोई सिक्का, कहीं कोई ठीकरी, कहीं कोई पत्थर। कनिंघम इन्हें चुनता-सहेजता रहता और इतिहास रचता रहता।

सर्दियों में दिनभर वह अपने आदमियों के साथ इन साइट्स पर काम करता। बंजारों के जैसे डेरे लगाकर तम्बुओं में रातें काटता। हाथी के हौदे में सफ़र करता। ऐसे चार-पांच महीने फील्ड की मेहनत के बाद गर्मियों में घर बैठकर इन पर रिपोर्ट्स तैयार करता। उसने ऐसी बीसियों रिपोर्ट्स के अलावा भरहुत के अपने उत्खनन पर ‘द स्तूपा ऑफ़ भरहुत’ नाम से किताब भी लिखी।

सिक्कों संग स्वदेश वापसी

1885 में वह रिटायर होकर अपने देश लौट गया। वहां जाकर भी वह आर्कियोलॉजी के काम में ही मगन रहा। बौद्ध स्थलों पर उसकी अंतिम पुस्तक बोधगया पर लिखी ‘महाबोधि’ थी, जो 1892 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी।

इसके अतिरिक्त, ईंटों से और टीलों से दूर हो जाने पर अंतिम दिनों में उसने अपना मन भारतभर से इकट्ठे किए गए सिक्कों में रमा लिया था।

इहलोक से विदाई

1893 के नवम्बर में एक बर्फ़ानी तूफ़ान में वह बीमार पड़ गया। लगभग अस्सी बरस की उमर में, दस दिनों की बीमारी के बाद अट्ठाईस नवम्बर को शाम पौने आठ बजे कनिंघम ने देह छोड़ दी।

इससे कुछ घड़ी पीछे वह भारत के सिक्कों पर लिखी अपनी नई किताब की पहली छाप के पन्ने पलट रहा था। जीवन के अस्सी में से साठ बरस उसने आर्कियोलॉजी को दिए। यह उसकी ही बदौलत था कि अपनी ही भूमि पर बिसराए गए बुद्ध पुनः लोकमानस में लौट आए।

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