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पर्व पावन:मकर संक्रांति के साथ याद आता है देवघर के तिलकुट का स्वाद, कई दिनों पहले से शुरु हो जाती थी संक्रांति की तैयारी

  • तिल के व्यंजन और पतंगबाज़ी की जुगलबंदी का उत्सव है मकर संक्रांति...समय के अवश्यम्भावी परिवर्तन चक्र में इसका स्वरूप भी बदला है। सांसारिक होड़ में तिल-तिल खट रहे लोगों में अब वैसी उत्सवधर्मिता दिखती भी नहीं, लेकिन सुकून यही कि संक्रांति के पर्व पर घर के तिलकुट की स्मृति और स्वाद चुपके से चला आता है।

हर दिन की तरह आज भी थोड़ा अलसाया, थोड़ा हड़बड़ाया जागा। नहाया-धोया। धूप-अगरबत्ती दिखाई। सूरज भगवान को हर दिन की तरह ही प्रणाम किया। बस आज दो सेकेंड ज़्यादा सिर नवाया। थाली में रखा अरवा चावल, तिल का लड्डू और सिक्का छुआ, मिलाया। तिल का लड्डू मुंह में दबाया और चल दिया दफ़्तर। हो गई मकर संक्रांति!

ओह, बरसों से अब यही सिलसिला चला आ रहा है। जल्दी-जल्दी हम दोनों यह रस्म निभाते हैं और दफ़्तर को कूच कर जाते हैं। आज मैंने छुट्टी ले ली थी तो यह अलसाते हुए, हड़बड़ाते हुए जागना थोड़ा और देर से हुआ, बस!

मकर संक्रांति मनाने का असली आनंद तो कब का जाता रहा। बचपन से लेकर बड़े होने तक, मकर संक्रांति मनाने का सुख तभी तक रहा, जब तक बेरोज़गार रहा। गांव-घर में रहा। दुमका-देवघर जैसे छोटे शहर में रहा। एमए की पढ़ाई के दौरान पटना में रहते हुए भी मकर संक्रांति में दुमका आ जाता था। और पहली नौकरी करते हुए धनबाद से भी दुमका आ जाया करता था। यह सिलसिला कमोबेश बना ही रहा।

फिर बदलती नौकरियों ने और बदलते शहरों ने तो मानो यह सुख और पुलक छीन ही ली। अब तो तारीख़ों में घुटकर रह गए हैं ये सारे देसी परब-त्योहार। मकर संक्रांति भी एक साधारण-सा दिन बनकर रह गया है। महानगरीय जीवन ने हम सबसे हमारी नैसर्गिक और पारम्परिक उत्सवधर्मिता छीन ली है। और, हमारी परम्परा में जो विविधता थी, वह इस आधुनिकता में कहां?

एकल परिवारों की दयनीयता तो और दुखदायी है। घर में बड़े-बुजु़र्ग, दादा-दादी, नाना-नानी ही तो बच्चों को, और हम बड़ों को भी अपने पर्व-त्योहारों की महत्ता समझाते थे, उत्सवधर्मिता की लौ लगाते थे। रिश्ते-नाते निभाना ही नहीं, अपने पर्व-त्योहार भी पूरे आब औ’ ताब से मनाना सिखाते थे। अब हम दो, हमारे दो के गमले में इतनी मिट्टी कहां कि कोई आम, कटहल, पीपल, बरगद की बात कर पाए।

मेरे घर में दादी ने और उनके साथ-साथ मेरे पिता ने हम सबको अपनी देशज उत्सवधर्मिता से जोड़ा। मां अनुगामिनी रहीं। दशहरा-दिवाली की तरह मकर संक्रांति भी हमारे घर में एक बड़ा पर्व था। लेकिन हम मकर संक्रांति को मकर संक्रांति नहीं, संकरात बोलते थे। बहुत हुआ तो मकर सकरात!

संकरात के दिन हम सब भोरे-भोर कड़कड़ाती ठंड में ठंडे पानी से ठिठुरते हुए नहाते थे, जो कौआ नहान जैसा ही होता था। कभी-कभार कोई चूल्हा ख़ाली रहा तो लोटा-दो लोटा गर्म पानी मयस्सर हो जाता था। सूरज भगवान थोड़े मेहरबान हो गए तो नहाने में धूप की छौंक भी लग जाती थी।

फिर कंपकंपाते, कटकटाते, कनकनाते शरीर पर गमछी लपेटकर सूरज भगवान को प्रणाम करते थे। फिर तिल-गुड़ का पवित्र स्पर्श कर सबसे पहले तिल के लड्डू खाते थे। और आंगन में पड़ी खाट पर आलथी-पालथी मारकर धूप सेकने बैठ जाते थे।

उसके बाद नाना प्रकार के पिट्ठा, ढकनेसर, दूधपिट्ठी, दलपिट्ठी, खीर, सेवई आदि का आनंद उठाने का लम्बा सिलसिला शुरू होता था, जो कई दिनों तक चलता था। कम से कम सप्ताह भर तो सुबह की जलखई में यही चलता रहता और चरबजिया या पंचबजिया नाश्ते में भी इन्हीं का भोग लगता। अड़ोस-पड़ोस में भी यही बंटता। जो आता-जाता, यही पाता, यही ले जाता! दशहरा, दिवाली या संकरात- सबमें यही रीत, यही बात! इन व्यंजनों को बनाने की तैयारी सप्ताह भर पहले से ही शुरू हो जाती। दादी संकरात के पहले के दो दिनों को चांवड़ी और बांवड़ी के नाम से पुकारती।

संकरात के दिन तो चार बजे भोर से ही पिट्ठा, लाई आदि बांधने का उपक्रम आरम्भ हो जाता और हम सब उस दिन कुछ पहले ही जागकर उस महाआयोजन में सम्मिलित हो जाते। तरह-तरह के पिट्ठे बनते। दाल का पिट्ठा, तिल का पिट्ठा, खोआ का पिट्ठा। उन पिट्ठों को भरने और बांधने का सधा हुआ हुनर सबके हाथ में एक-सा नहीं था। किसी के पिट्ठे का पेट फट जाता तो किसी के पिट्ठे का मुंह खुल जाता। फिर उन्हें सही-सही पकाने, सिंझाने की कला भी कम ज़हीन न थी। कभी कुछ पिट्ठे कठुआ जाते तो कुछ भसक जाते।

लाई या लाड़ू भी कई तरह के बनते और ढेर-ढेर। सफ़ेद तिल की लाई, काले तिल की लाई, चूड़ा की लाई, मूढ़ी की लाई, धान के लावे की लाई! लाई बांधने की कला भी बड़ी उन्नत थी। गुड़ का पाक कितना कड़ा या नरम हो कि लाई का चूड़ा, मूढ़ी या तिल सन भी जाए और पूरी कड़ाही ख़ाली होने तक सूख भी न पाए। फिर हाथ में बस ज़रा-सा पानी लेकर जल्दी-जल्दी लाई बांधनी होती थी कि हाथ में गुड़ न सटे, न हाथ जले, और लाई पानी से सिमसिमा भी न जाए।

हमसे तो ठीक से न तो पिट्ठा बंधता, न लाई। पिट्ठा फट जाता और लाई भरक जाती। दोनों छोटी बहनें इसमें माहिर हो चुकी थीं। दादी मुझे थोड़ा फटकारते हुए कहती- ‘ई छौंड़ा तऽ कौनो काम के नइखे! एकरा कौनो काम में अंगे ना लागे!'

सचमुच बहुत सब्र से, बहुत जतन और लगन से लगना होता था इस काम में। दादी से ही मां-पिताजी ने इन चीज़ों को बनाने की सही ताक और सही पाक सीखी। फिर मेरी बहनों ने थोड़ी-बहुत। सबसे बड़ी बात यह थी कि यह सब कला और हुनर से ज़्यादा, अभ्यास का क़ारोबार था।

कई दिनों तक श्रम करने के बाद भी उन्हें लगता, यह नहीं बन पाया, वह नहीं बन पाया। आज की पीढ़ी की तरह उन्हें रसोई में उकताते या झुंझलाते नहीं देखा। और न ही हर पर्व-त्योहार को बाज़ार के हवाले करते देखा। जब भी देखा, हर हाल में उत्सवी देखा। कितना आनंद था उन दिनों में! उनके संग-साथ में।

देवघर के तिलकुट से संकरात का स्वाद दुगना हो जाया करता था। दुमका में भी तिलकुट बिकता था, पर वह बात न होती थी। देवघर में दिसम्बर के आख़िर से ही बैजनाथ धाम मंदिर के आसपास की गलियों में तिलकुट की मीठी-सोंधी महक गमगमाने लगती थी। कोयले के लाल-लाल अंगारों पर लोहे की काली-काली कड़ाहियों में सफ़ेद-सफ़ेद तिल को उलाते देखना भी एक अलग तरह की सुखानुभूति से भर देता था।

देवघर का तिलकुट इतना नर्म, मुलायम और ख़स्ता होता कि मुंह में रखते ही घुल जाता। कुछ दिनों पहले ही हम पति-पत्नी देवघर के तिलकुट को याद कर रहे थे और विवशता पर हंस रहे थे। पत्नी ने कहा भी कि मम्मी से कहती हूं कि कूरियर से भेज दें, पर मैंने मना कर दिया। मैं उसे कैसे समझा पाता कि मैं उस स्वाद के लिए नहीं, उस उष्ण-धवल दृश्य के लिए तरस रहा था।

आज दादी नहीं है। बरसों हुए उसे गुज़रे। मां-पिता दूर दुमका में हैं और हम चार प्राणी यहां मुम्बई में। न वे उस सामूहिक उत्सव का सुख ले सकते हैं वहां, न हम यहां। लाख कोशिशों के बावजूद, मेरी छोटी बेटियों के लिए भी यह उतना उत्सवी दिन तो नहीं ही बन पाता, जितना हमारे बचपन में रहता आया।

बस सुखद यह रहा कि अहमदाबाद में सात साल बिताने का सुख मिला तो अपने क्वार्टर की बड़ी-सी छत पर जाकर पतंगबाज़ी का आनंद उठाने का अवसर मिल गया। रात में आकाश में लालटेन उड़ाने का रोमांच भोग लिया। साबरमती के तट पर यानी रिवर फ्रंट पर इंटरनेशनल काइट फेस्टिवल की भव्यता देखने का सौभाग्य मिल गया। और वहीं पहली बार जाना कि संकरात को उत्तरायण भी कहते हैं।

आज बेटियों को संभालने वाली संगीताबेन दो पतंगें भी साथ ले आईं और बेटियों को अपनी बालकनी से ही पतंग उड़ाने की कोशिश में ख़ुश और रोमांचित होते देखा तो जी जुड़ा गया। लगा, चलो, बच्चों के हाथों से उत्सव की डोर अभी छूटी नहीं है।


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