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उजाला कम ना हो:यह अपने गौरवशाली इतिहास को फिर से याद दिलाने का समय है

बिहार के वैशाली स्थित अशोक स्तंभ। यह ईसा पूर्व तीसरी सदी का माना जाता है जो बताता है कि प्राचीन समय में भी भारतीय स्थापत्यकला कितनी सुदृढ़ थी। - Dainik Bhaskar

बिहार के वैशाली स्थित अशोक स्तंभ। यह ईसा पूर्व तीसरी सदी का माना जाता है जो बताता है कि प्राचीन समय में भी भारतीय स्थापत्यकला कितनी सुदृढ़ थी।

'किसी सभ्यता या संस्कृति को ग़ुलाम बनाना हो, उसे ओछा साबित करना हो तो उसे उसकी सांस्कृतिक जड़ों से काट दो, जिससे वह सभ्यता अपने गौरवशाली इतिहास से वंचित हो जाए।' दुनिया के सभी आक्रमणकारियों का यही सिद्धांत रहा है। दुर्भाग्यवश, भारतवर्ष पर इस सिद्धांत को फ़ारसियों से लेकर अंग्रेजों तक सभी आक्रांताओं ने थोपने का प्रयास किया और वे कुछ हद तक इसमें सफल भी रहे। अपने तथाकथित जातीय दम्भ में चूर अंग्रेजों ने तो भारतवर्ष को एक 'राष्ट्र' तक मानने से इनकार कर दिया था और अपने औपनिवेशिक शासन को तर्कसंगत साबित करने के लिए समाज में ये झूठ फैलाना शुरू कर दिया था कि 'आर्य' स्वयं विदेशी आक्रमणकारी थे, जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता पर आक्रमण करके अपनी वैदिक सभ्यता बसाई थी। समय के चक्र ने अंग्रेजों को तो वापस इंग्लैंड भेज दिया लेकिन उनके कुतर्कों को आज भी कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने न सिर्फ़ सहेज कर रखा है, बल्कि समाज में प्रचारित-प्रसारित भी किया है। हम सब को अब तक ऐसा ही एकांगी इतिहास पढ़ाया जाता रहा है, लेकिन अब समय ऐसे कुतर्कों को खंडित करने का है।

डेक्कन कॉलेज के पूर्व कुलपति डॉ. वसंत शिंदे और बीरबल साहनी पुराविज्ञानी संस्थान, लखनऊ के डॉ. नीरज राय की अगुवाई में में कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने हरियाणा के हिसार ज़िले के राखीगढ़ी से प्राप्त हड़प्पा कालीन नरकंकालों के डीएनए टेस्ट से ये साबित कर दिया कि आर्य भारतवर्ष के ही मूल निवासी थे। वे न ही आक्रमणकारी थे और न ही कहीं बाहर से आए थे। साथ ही यह भी साबित कर दिया कि उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सभी भारतीयों में डीएनए की आधारभूत संरचना एक जैसी ही है, यानी उत्तर-दक्षिण और द्रविड़-आर्य के नाम पर अब तक फैलाया जाने वाला विवाद निराधार था।

और अब बात करते हैं दूसरे झूठ की यानी 'भारत कभी राष्ट्र था कि नहीं!'भारत एक राष्ट्र था, है और सदैव रहेगा। दरअसल, देश और राज्य से इतर राष्ट्र एक सांस्कृतिक भावना होती है, जिसका निर्माण एक जैसी संस्कृति, एक जैसे इतिहास और एक जैसी भावनात्मक एकता के द्वारा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश और राज्य का नक्शा आप काग़ज़ पर बना सकते हैं, लेकिन राष्ट्र का नहीं! क्योंकि देश और राज्य की एक निश्चित सीमा होती है, लेकिन राष्ट्र की कोई सीमा नहीं होती। दुनिया में जहां-जहां तक भारतीय रहते हैं, उनके मन में भारत के प्रति एक गौरवपूर्ण अपनत्व की भावना पैदा होती है, वहां-वहां तक भारतीय राष्ट्र विस्तृत है।

'राष्ट्र' शब्द और 'राष्ट्रीय भावना' दुनिया को हमारे वेदों से मिली हैं। ऋग्वेद में कहा गया है- 'उप सर्प मातरं भूमिमेताम्' अर्थात्- हे मनुष्य! तू इस मातृभूमि की सेवा कर। यजुर्वेद में कहा गया है- 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः' अर्थात्- हम सभी राष्ट्रजन राष्ट्र की रक्षा के लिए जागृत और जीवंत रहें। अथर्ववेद में कहा गया है- 'माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः' अर्थात्- भूमि मेरी माता है और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूं। इसी विचार को आत्मसात् करते हुए भगवान श्री राम कहते हैं- 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' यानी- जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। हमारा राष्ट्रवाद तो इतना विराट है कि हम सम्पूर्ण पृथ्वी को ही अपना परिवार मानते हैं 'अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥' अर्थात्- यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी सोच छोटे हृदय वाले व्यक्तियों की होती है। उदार चरित्र लोगों के लिए तो सम्पूर्ण पृथ्वी ही उनका परिवार है।

हमारी राष्ट्रीय चेतना की विराटता यह है कि हम देश-विभाजन के बाद भी अपने राष्ट्रगान में 'पंजाब-सिंधु-गुजरात-मराठा-द्राविड़-उत्कल-बंग' गाते हैं यानी आज सिंध भले ही हमारे देश का हिस्सा नहीं है, लेकिन हम उसे आज भी अपना राष्ट्र मानते हैं। हमारी भाषाएं, हमारे खान-पान, तीज-त्योहार, रहन-सहन, पहनावे-ओढ़ावे कितने ही अलग, कितने ही विविध क्यों न हो, फिर भी पूरा भारत एक तिरंगे के रंग में रंगा है। वैदिक ऋषि महर्षि अगस्त्य का दक्षिण भारत जाना और आदि गुरु शंकराचार्य का भारतीय सांस्कृतिक एकता को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना करते हुए उत्तर भारत आना, भारतवर्ष की अखंड सांस्कृतिक-राष्ट्रीय एकता का परिचायक है। इसलिए हम न सिर्फ़ एक राष्ट्र हैं बल्कि दुनिया के सबसे प्राचीन, सबसे ज़्यादा समावेशी राष्ट्र भी हम ही हैं। लेकिन इस विराट दर्शन को वे अंग्रेज कभी नहीं समझ सकते, जिन्होंने राष्ट्र शब्द ही पहली बार पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में सुना था। अब आप ही ये निर्णय करिएगा कि 'भारत आदिकाल से एक राष्ट्र रहा है या नहीं!'

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