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शंकर व्याख्यानमाला में दृग्दृश्य विवेक पर व्याख्यान

 

आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास द्वारा 40वीं शंकर व्याख्यानमाला का वर्चुअल आयोजन किया गया। इस व्याख्यान में चिन्मय मिशन मुंबई के आचार्य स्वामी स्वात्मानंद सरस्वती जी का 'दृग्दृश्य विवेक' विषय पर व्याख्यान हुआ।

ब्रह्म दृष्टा है, माया दृश्य है - यही वेदान्त का सार है

स्वामी जी ने बताया कि मनुष्य में विलक्षण गुण है विवेक का। उचित-अनुचित, सही-गलत का विवेक मनुष्य अपनी बुद्धि से तय कर सकता है। यदि हम अविवेकी होकर कोई कार्य करते हैं अथवा कोई निर्णय लेते हैं तो उसके दुष्परिणाम हमको प्राप्त होते हैं। आज के समय में सुख सुविधाएँ बढ़ रही हैं फिर भी आनंद कम हो रहा है। इसका कारण अविवेकपूर्ण व्यवहार है। स्वामी जी ने बताया कि स्थूल विवेक की क्षमता तो सभी प्राणियों में होती है लेकिन मनुष्य में सूक्ष्म विवेक की भी क्षमता होती है जिससे वह धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य और आत्मा-अनात्मा का विवेक कर पाता है। भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में अर्जुन को धर्म-अधर्म का विवेक कराया। राजकुमार सिद्धार्थ को जब नित्य-अनित्य का विवेक हुआ तो वह बुद्ध बन गए। अविवेक से दुख एवं विवेक से सुख प्राप्त होता है।

स्वामी जी ने बताया कि जब दो वस्तुएँ एक जैसी लगती हैं तब उन को पृथक करना विवेक है। देह और आत्मा भिन्न हैं किंतु हम अविवेक के कारण स्वयं को देह मान लेते हैं। अपने स्वरूप के बोध के लिए और आनंद प्राप्ति के लिए दृग्दृश्य-विवेक आवश्यक है। जो कुछ भी दृश्य है वह नश्वर है और इसलिए उससे हम परम आनंद की प्राप्ति नहीं कर सकते। कर्मफल भी नश्वर है। इदम् दृश्य है, अहम दृष्टा है। दृश्य को ही दृष्टा मान लेना और दृष्टा के स्वरूप का अज्ञान - यही हमारे दुखों का कारण है। आचार्य शंकर कहते हैं कि ब्रह्म ही दृष्टा है और माया ही दृश्य है। यही वेदांत का सार है। आज हम दृश्य को सत्य मानते हैं और जीव को दृष्टा मानते हैं।

दृग्दृश्य विवेक के पांच नियम बतलाते हुए स्वामी जी ने कहा कि पहला नियम यह है कि दृष्टा और दृश्य भिन्न होते हैं। दूसरा नियम है कि दृष्टा एक होता है दृश्य अनेक होते हैं।

तीसरा नियम  दृष्टा दृश्य के गुणों से अप्रभावित रहता है। चौथा नियम  दृष्टा दृश्य को देख सकता है किंतु दृश्य दृष्टा को नहीं देख सकता और पांचवा नियम है कि दृष्टा चेतन होता है और दृश्य जड़ होता है।

स्वामी जी ने आचार्य शंकर रचित ग्रंथ 'दृग्दृश्य विवेक' के प्रथम श्लोक का विस्तार करते हुए समझाया कि विभिन्न विषय दृश्य और इंद्रियां दृष्टा हैं। किंतु वे इंद्रियाँ भी मन के लिए दृश्य हैं और मन उनका दृष्टा है। वह मन भी साक्षी चैतन्य के लिए दृश्य है और साक्षी चैतन्य उसका दृष्टा है। हमारा मूल स्वरूप वही साक्षी चैतन्य है जो किसी का दृश्य नहीं है। यही साक्षी चैतन्य आत्मा है जो ब्रह्म स्वरूप है, सत्य है और नित्य है। हम आनंद प्राप्त करना चाहते हैं जबकि हम स्वयं आनंद स्वरूप हैं। देहभाव, अविवेक और अज्ञान के दूर होने पर हमें ज्ञात होता है कि हम आत्मा हैं। 

व्याख्यान का सीधा प्रसारण न्यास के फेसबुक और यूट्यूब चैनल पर किया गया। इसमें चिन्मय मिशन, आर्ष विद्या मंदिर राजकोट, आदि शंकर ब्रह्म विद्या प्रतिष्ठान उत्तरकाशी, मानव प्रबोधन प्रन्यास बीकानेर, हिन्दू धर्म आचार्य सभा, मनन आश्रम भरूच आदि संस्थाएँ भी सहयोगी रहीं। न्यास द्वारा प्रतिमाह शंकर व्याख्यानमाला के अंतर्गत वेदान्त विषयक व्याख्यान आयोजन किया जाता है।


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