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प्राचीन है भारत की वास्तुकला, घर, मंदिर और बावड़ियाें का सदियों से किया जा रहा है कलात्मक निर्माण

 

  • स्थापत्य की संस्कृति का उत्सव मनाने के लिए भारतीय स्थापत्य की एक विशेष धारा वास्तुशिल्प पर एकाग्र यह लेख पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
  • इसमें विद्वत लेखक ने घर, मंदिर और जलाशय सम्बंधी वास्तु-मानकों से अवगत कराया है।

भारतीयों की आवास के लिए जो वैज्ञानिक दृष्टि से निर्मितियां हैं, उन्हें त्रिआलय में विभक्त किया जा सकता है। ये हैं- मनुष्यालय, जलालय और देवालय। इनके निर्माण और नियोजन के मूल में अनेक साधन-संसाधन, तंत्र-तकनीकें और चिंतन तथा अनुभव उपयोगी रहे हैं।

सभ्यता के उष:काल से ही हमें इनकी पुष्टि होती जाती है। इसमें अतिशयोक्ति नहीं कि आदिमानव ने जलाश्रय में जीवों को विहार करते हुए देखा, पक्षियों को वृक्षावास करते, पृथ्वीतल में खोह-बिल बनाकर सरीसृप आदि को आश्रय लेते देखा तो कभी अपने लिए भी आश्रय का प्रश्न खड़ा किया होगा। निवास करने के विचार से सर्वप्रथम मानव ने वास्तु के महत्व को जाना होगा।

वायुपुराणकार ने माना है कि मनुष्य ने वृक्षों के अनुकरण से बार-बार सोच-विचारकर घरों का निर्माण-नियोजन किया था। जिस गृह या शाला से चित्त का रंजन हो और जो मन को मुदित करे, उसका नाम प्रासाद रखा गया। ये मानव ही नहीं, देवताओं के लिए भी बने। इस कार्य के लिए जो विद्या विकसित हुई, उसको विश्वकर्माज्ञान और मयविद्या के नाम से प्रतिष्ठित किया गया।

आरम्भिक विश्वकर्मीय मत उत्तर गुप्तकाल से परिवर्धित होने आरम्भ हुए और पुराणों में अठारह आचार्यों सहित आगमों और वास्तुशास्त्र का उल्लेख हुआ। दसवीं-ग्यारहवीं सदी तक आते-आते इस सिद्धांत का इतना महत्व बढ़ गया कि पुराणों के बराबर मानसार, मयमतम्, समरांगण सूत्रधार, अपराजित पृच्छा, कामिकागम, करणागम, काश्यपशिल्पम् जैसे अनेक ग्रंथ तैयार हुए जो व्यावहारिक और प्रायोगिक भी सिद्ध हुए। शिल्पियों की संख्या बढ़ती रही। न केवल सिद्धांतों और नियमों का पल्लवन हुआ बल्कि वास्तु के प्रत्येक अंग का नियमन और वर्गीकरण किया गया। आइए, इसे एक-एक कर देखते हैं।

मनुष्यालय
मनुष्य को सुख, सुविधा और सुरक्षा प्रदान करने वाला आवास ही है। विधिपूर्वक गृह निर्माणकर्ता को बावड़ी, देवालय आदि के निर्माण का पुण्य भी प्राप्त होता है, इसीलिए विश्वकर्मा आदि ने सर्वप्रथम गृह-निर्माण का आदेश प्रदान किया है। व्यक्ति को अपने लिए शास्त्रसम्मत सुदृढ़ आवास का निर्माण करना चाहिए, इसी मान्यता को लेकर प्रत्येक काल में विविध प्रयास किए जाते रहे तथा इन प्रयासों ने वास्तु-विज्ञान को विकास की वीथी से वैभव के विस्तृत व्योम की ओर अग्रसर किया।
पूर्व मध्यकाल तक राजप्रासाद के निर्माण के विभिन्न नियम निर्धारित हो गए तथा दरबारियों के साथ ही सेवकों-भृत्यों, जनसामान्य के लिए यथोचित भवनादि के निर्माण तथा स्थानादि के चयन के निर्देश दिए जाने लगे। कहा गया है कि शिल्पी को मान-प्रमाण व सूत्र से नहीं हटना चाहिए। निर्माण में आय-व्यय, काकिणी जैसी गणितीय गणनाओं का प्रतिपादन किया गया। आय से हीन बन जाने वाले प्रासाद से स्वामी का क्षय हो जाता है। स्तम्भ से वेध होने लगे तो अपने कुल का उच्छेद होने का घोर भय हो सकता है। मर्म से वेध होने पर बांधवों की हानि तथा त्रिशूल दोष होने पर महाभय होता है। यदि कहीं शल्य दोष रह जाए तो अर्थ का विनाश होता है और यदि निर्धारित छंद में त्रुटि हो जाए तो संतान को कष्ट होता है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के कृष्णजन्मखण्ड (अध्याय 103) में वृक्षों की मंगलमयता और वर्जनीयता का वर्णन है। गृहस्थों के लिए नारियल का वृक्ष धनप्रदाता होता है। वह यदि ईशानकोण या पूर्व दिशा में हो तो पुत्रप्रद होता है। पूर्व में आम का वृक्ष हो तो वह सम्पत्ति देने वाला होता है। बेल, कटहल, जम्बीर, नीम्बू तथा बेर के वृक्ष पूर्व में होने पर संतानदायक, दक्षिण में धनदाता तथा सर्वत्र सम्पत्ति प्रदान करने वाले होते हैं। इनसे गृहस्थ की उन्नति होती है। जामुन, केला और आंवला के वृक्ष पूर्व में बंधुप्रद तथा दक्षिण में मित्रता को बढ़ाने वाले होते हैं और सर्वत्र शुभप्रद माने जाते हैं। अन्नों में चना, शाकों में लौकी, कुम्हड़ा, आयाम्बु, कर्कटी, हल्दी, अदरक, हरितकी, आमलकी व ईख तथा वृक्षों में अशोक, शिरीष, कदम्ब को शुभ माना गया है।
द्वार भवन का मुख्यांग है। वास्तुप्रद रचना के अनुसार यदि द्वार की स्थिति सही हुई तो स्वत: कई दोषों का निवारण हो जाता है और सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य और यश-कीर्ति की अभिवृद्धि होती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि भवन की जो लम्बाई-चौड़ाई हो, उसको वास्तु-अनुसार आठ-आठ रेखाएं डालकर चौंसठ पदों में बांट दें। पूर्व में ईशान कोण के क्रम से क्रमश: पहला और दूसरा क्षेत्र छोड़कर तीसरे और चौथे पद पर द्वार रखा जाता है। दक्षिण में आग्नेय कोण से क्रमश: तीन पद छोड़कर आगे के तीन पदों पर द्वार रखने से धन और यश मिलता है। पश्चिम में नैऋत्यकोण से क्रमश: दो पद छोड़कर चार पदों पर द्वार निवेश से धन-वैभव, विशेष संपदा, सौभाग्य और अल्प प्रयास से अधिक की प्राप्ति संभव है। इसी प्रकार उत्तर में वायव्य से तीन पद छोड़कर क्रमश: तीन पदों पर द्वार रखने से संपदा की प्राप्ति होती है।

देवालय
भारत में देवालय-स्थापत्य का विकास आस्था के रूप में हुआ और नींव से शिखर तक इसमें गणित का प्रयोग हुआ है। इसके लिए अनेक स्थापत्य सिद्धांतमूलक ग्रंथों का प्रणयन भी हुआ। इनमें काश्यपशिल्प, मयशास्त्र, शिल्पप्रकाश, देवालय चन्द्रिका, शिल्प रत्न, तन्त्रसमुच्चय मुख्य हैं तो ईशानशिवगुरुदेव पद्धति, सोमशम्भु पद्धति जैसे निबंध ग्रंथ और लक्षण सार समुच्चय, कामिकागम, अजितागम, दीप्तागम जैसे आगमों का महत्व भी कम नहीं है।
कामिकागम में प्रासादों की छह कोटियां निर्धारित की गई हैं- 1. नागर, 2. द्राविड़, 3. वेसर, 4. वराट, 5. कलिंग तथा 6. सर्वदेशी। ये सभी देवालय देशानुसार निर्धारित किए गए हैं। इनके स्तर व भूमियां विविध देवों का प्रतिनिधित्व करने वाली मानी जाती हैं। इनके शीर्ष आकार में वृत्त, चौकोर, छह या आठ पहलू के बनाए गए।
हमें द्विभौमिक या दो भूमि वाले देवालयों की रचना भी देखने को मिलती है। इसमें तलविन्यास, कूट, कोष्ठ, तोरण रचना सहित स्वस्तिकादि प्रासादों का स्वरूप प्रमुख हैं। ये पांच मान वाले प्रासाद होते हैं, जिनके कुल पंद्रह भेद हैं।

जलालय
धर्मशास्त्रों में जलदान और जलस्रोत का निर्माण बहुत पुण्यकारी माना गया है। वैदिक काल तक जल संबंधी वैज्ञानिक ज्ञान पूरी तरह विकसित हो चुका था। एक वैदिक मंत्र में जल विज्ञान को जानने वाले एवं उसके संपादनकर्ताओं की आठ श्रेणियां बताई गई हैं। मौर्यकाल में नदीपाल नामक अधिकारी की नियुक्ति का विधान था। चाणक्य ने नदी, जलाशय व कुओं के जलद्वारों के नियमन द्वारा पानी के उचित वितरण की व्यवस्था का निर्देश किया है।
भूमिदान विषयक ताम्रपत्रों से पता चलता है कि ऐसे खेतों को ही प्राय: दान किया जाता था, जिन पर कूप होते थे। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में संसाधनों के रूप में कुएं, बावड़ी, पुष्करणी, पाली आदि के निर्माण की परंपरा रही है। जल की उचित सुविधा देखकर तालाबों की रचना की जाती रही है। ये तालाब केवल जलस्रोत ही नहीं होते बल्कि वे कमल-कुमुदों के खेत भी माने जाते थे। जगह-जगह जलोत्थान के लिए जलयंत्रों की व्यवस्था की जाती थी। ये फव्वारे के रूप में भी जल को गिराते थे।
जल जैसे संसाधन को अपने अधिकार में रखने के ध्येय से मानव ने कुआं जैसी निर्मिति का विकास किया। इसमें जल प्राय: भूमिगत शिराओं से सुलभ होता है और रस्सी के बल से ऊपर खींचा जाता है। कुएं के जल को बहुत ही रुचिकारक माना जाता है। कूप रचना के प्रवर्तन का श्रेय राजा सगर के पुत्रों को दिया जाता है और इसके यश की चिरकाल तक सुरक्षा करने के लिए आकाश जैसी शोभा को धारण करने वाले समुद्र से कामना की जाती थी। महाभारत में कुएं के निर्माण के फल को तालाब का सौवां अंश कहा गया है।
सिंधुवासियों ने घरों में ही कुओं का निर्माण करना आरंभ किया था। वहां अनेक घरों में कुएं मिले हैं। गृहकूप की कदाचित यह पहली धारणा थी। हर परिवार का अपना निजी कूप होने से लगता है कि सिंधुवासी भेदभाव को स्वीकारते थे लेकिन वहां सामूहिक स्नानागार भी मिले हैं। 906 ईस्वी में सिद्धर्षि ने उस काल के ऐसे कुओं के लिए कहा है कि उनका तल दिखाई नहीं देता था (अदृष्टतल)। ऐसे कुओं पर जलोत्थान के लिए यंत्र का प्रयोग होता था। साथ ही वहां जलद्वार (निर्वहणि), नालों और उनसे जुड़े खेतों (यावम्, केदारक) और बीज बोने वाले लोगों (वापक) का ज़िक्र भी है। कुओं से जल के भण्डार (पानांतिक) भी होते थे। कुओं के पास पनशालाओं का निर्माण पुण्यदायी माना जाता था
सच तो यह है कि भारत में वास्तु या नागर अभियान्त्रिकी के सुदीर्घ संदर्भ प्राप्त होते हैं। हमारे यहां विभिन्न कालक्रमों में देश-स्थान, रुचि की दृष्टि से वास्तु के प्रणयन की प्रवृत्ति रही है। राजा-रानियों और श्रेष्ठियों-सामंतों ने निर्माण कार्यों में पर्याप्त रुचि ली। ये निर्मितियां अपने स्वरूप में वैज्ञानिक विरासत की जीवंत साक्ष्य हैं।

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