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बोधकथा 'अपूरणीय क्षति':हर वस्तु के बनाए जाने का मक़सद उसकी उपयोगिता में निहित होता है और उपयोग होने पर ही निर्माण सार्थक होता है

 


संत तिरुवल्लुवर आरम्भिक जीवन में जुलाहे थे। साड़ी या ज़रूरी कपड़ों की एक छोटी-सी दुकान करते थे। एक बार कुछ शरारती लड़के उनकी दुकान पर आ कर सौदेबाज़ी करने लगे। उनमें से एक धनी लड़के ने एक साड़ी को उठा कर पूछा, ‘क्या मूल्य है इसका?’

‘दो रुपये?’

शरारती लड़के ने साड़ी फाड़ कर उसके दो टुकड़े कर दिए और फिर पूछा, ‘अब क्या मूल्य है इसका?’

‘एक-एक भाग का एक-एक रुपया।’

लड़का शरारती था और उनको चिढ़ाने के उद्देश्य से ही दुकान पर वे लोग आए थे। लड़का उस साड़ी के टुकड़े करता रहा और हर बार उनका मूल्य भी पूछता रहा। संत उसी हिसाब से उसको मूल्य बताते रहे।

जब साड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए, तो वह लड़का बोला, ‘मैं अब इस साड़ी को नहीं ख़रीदूंगा। ये टुकड़े मेरे किस काम के?’

संत बोले, ‘ये तुम्हारे क्या, किसी के भी काम नहीं आएंगे।’

यह सुन कर लड़के को कुछ लज्जा-सी आई। अंत में उसने कहा, ‘ठीक है, ये दो रुपये लो, इससे आपका घाटा पूरा हो जाएगा।’ उसने रुपये देने चाहे, किन्तु संत ने वे रुपये नहीं लिए।

संत बोले, ‘घाटा तो तुम क्या कोई भी पूरा नहीं कर सकता। किसानों के परिश्रम से कपास पैदा हुआ, जिसकी रुई से मेरी पत्नी ने सूत काता, उसको मैंने रंगा और फिर उसकी साड़ी बुनी।’

‘घाटा तो तब पूरा होता जब कोई इसको पहनता। कितने लोगों का परिश्रम व्यर्थ गया। क्या कोई रुपये से इस घाटे को पूरा कर सकता है?’

तिरुवल्लुवर ने यह सारी बात बड़े शांत चित्त से कही थी, किसी आवेश में आकर या डांटने के भाव से नहीं। मानो कोई पिता अपने पुत्र को समझा रहा हो।

शरारती लड़का यह सब सुन कर लज्जा से पानी-पानी हो गया। उसकी आंखें भर आई। सहसा वह तिरुवल्लुवर के चरणों में गिर पड़ा। उसने उनसे बार-बार क्षमा-याचना की।

तिरुवल्लुवर तो संत थे, उन्हें उस पर जब क्रोध ही नहीं था, तो फिर क्षमा क्या करते।

लड़के चुपचाप चले गए।

(ज्ञान कथाएं से साभार)

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