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जीवन की डोर:सांस लेने की कला, शरीर को नीरोगी और मन को प्रसन्न रखने में उपयोगी है यह कला

 

  • जीवन की डोर श्वास से बंधी है, यह तो सब जानते हैं लेकिन श्वास लेना भी एक कला है, यह अधिकांश नहीं जानते। यह लेख श्वास की कला पर।

देश-दुनिया में सैकड़ों प्रकार की शिक्षा और कलाओं का प्रशिक्षण देने वाले विद्यालय और संस्थान हैं, लेकिन एक भी ऐसा नहीं है, जहां सही ढंग से श्वास लेने का पाठ पढ़ाया जाता हो। तब जबकि श्वास न केवल जीवन की रक्षा के लिए अनिवार्य है, बल्कि शरीर के आरोग्य के साथ मन की प्रसन्नता के लिए भी परम उपयोगी है।

बशर्ते इसे उतने ही वैज्ञानिक तरीक़े से लिया और छोड़ा जाए, जितना कि श्वास का विज्ञान अपेक्षा करता है। विश्वास कीजिए तब आप पाएंगे कि अनायास ही जीवन में कितना आमूलचूल परिवर्तन हो गया है।

जिस तरह किसी मोटरकार को चलाने में काम आने वाले पांच फ़्यूल्स में तीन कूलेंट ऑयल, इंजिन ऑयल और पेट्रोल/डीज़ल प्रमुख हैं, उसी तरह मानव शरीर के भी तीन प्रमुख ईंधन हैं। ये हैं भोजन, पानी और श्वास। कोई गाड़ी कूलेंट ऑयल और इंजिन ऑयल की कमी के बगै़र चल सकती है, मगर पेट्रोल या डीज़ल के ख़त्म होते ही खड़ी हो जाएगी। ठीक उसी तरह मनुष्य का शरीर भोजन व पानी के बग़ैर एक सीमा तक जीवंत रह सकता है मगर श्वास के बगै़र चंद पलों में निर्जीव हो जाएगा।

शरीर विज्ञान के विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि किसी व्यक्ति को भोजन न मिले तो वह 90 दिन तक जीवित रह सकता है। इसीलिए जैन धारा में साधक तीन मास तक निराहार रहकर भी सहज रहते हैं।

फिर पानी है, जो 72 घंटे तक न मिले तब भी प्राण को ख़तरा नहीं होता। मगर श्वास के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि यदि अधिकतम आठ मिनट तक किसी को श्वास न मिले तो उसके प्राण निकल जाएंगे। इसलिए कि जिस तरह पेट्रोल या डीज़ल किसी गाड़ी का मुख्य फ़्यूल है, ठीक उसी तरह मानव शरीर का मुख्य ईंधन श्वास है।

भोजन और पानी बहुत आवश्यक है लेकिन वे श्वास की भांति अनिवार्य नहीं है। तभी तो योगी जन सुदीर्घ काल तक केवल श्वास को साधकर स्वस्थ, सुखी व शांत जीवन जी लेते हैं।

सनातन धर्म के शास्त्र चार युगों की चर्चा करते हैं और इनके युग धर्म पर भी प्रकाश डालते हैं। तद्नुसार चार युगों में सर्वश्रेष्ठ सतयुग का धर्म योग ही था। त्रेता का यज्ञ, द्वापर का ज्ञान और कलयुग का धर्म सत्संग बताया गया है। जैसा कि मानस में बाबा तुलसी लिखते हैं, ‘कलजुग जोग न जज्ञ न ज्ञाना, एक अधार राम गुन गाना।’ अर्थात् कलयुग में पूर्ववर्ती युगों के धर्म क्रमश: योग, यज्ञ व ज्ञान काम नहीं आएंगे।

इसमें केवल राम नाम का कीर्तन ही भवसागर से पार लगाने में सहायक होगा। इस अर्थ में सतयुग का धर्म योग था और जैसा कि शास्त्र कहते हैं उस युग में लोग न तो कोई काम करते थे और न ही उन्हें भोजन या पानी की आवश्यकता या अपेक्षा होती थी। इसलिए क्योंकि योग का धर्म निर्वहन करते हुए वे लोग श्वास को साधने की कला में दक्ष थे। यही कारण है कि सतयुग में लोग दुर्घायु होते थे, क्योंकि आयु का क्षय और जीवन का समापन करने वाली श्वास की डोर का संचालन उनके अपने हाथ में था।

कहते हैं ईश्वर ने प्राणी मात्र को निश्चित मात्रा में श्वास बख़्शी है। श्वान अपनी श्वास को शीघ्र ख़र्च कर देता है अतः उसकी अल्पायु में ही मृत्यु हो जाती है। इसके उलट हाथी या कछुआ अपनी श्वास को संतुलन से व्यय करते हैं, इस कारण वे दीर्घकाल तक जीते हैं। ठीक इसी तरह मनुष्यों में भी जो अपने श्वास के कोष को बेतरतीब और अनियोजित ढंग से व्यय या अपव्यय करते हैं वे अल्पजीवी होते हैं और जो संतुलित व नियोजित तरीके से ख़र्च करते हैं वे न केवल दीर्घजीवी बल्कि स्वस्थ व शांत जीवन जी पाते हैं।

संतों, साधकों, कर्मयोगियों के चिरंजीवी या दीर्घजीवी होने का एकमात्र राज़ श्वास लेने की कला में निपुण होना है। महाभारत के शांतिपर्व में महर्षि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को जो बहुमूल्य उपदेश दिया, उसके केंद्र में श्वास की साधना ही है।

महर्षि ने कहा कि- ‘नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम्। तावुभावेकचर्यौ तावुभावनिधनौ स्मृतौ।।’

अर्थात् सांख्य के समान कोई ज्ञान नहीं है और योग के समान कोई बल नहीं है। इन दोनों का लक्ष्य एक है और ये दोनों ही मृत्यु का निवारण करने वाले हैं।

‘योग साधन में रुद्र अर्थात् प्राण प्रधान है। यही प्राण सर्वश्रेष्ठ है। इसी प्राण को अपने वश में कर लेने पर योगी इस शरीर से दसों दिशाओं में स्वच्छंद विचरण कर सकते हैं।’ यह ऋषि-वाणी श्वास के बारे में प्रतीकात्मक है मगर ‘प्राण’ के माध्यम से उसी प्राण की ओर संकेत करती है, जिसके निकल जाने पर शरीर का नाश या अंत हो जाता है। इशारा यह है कि जो श्वास को वश में करने की कला को सीख-समझ लेता है उसके लिए मानो दसों दिशाएं विहारस्थली बन जाया करती हैं।

यह भी कि वेद में स्थूल व सूक्ष्म दो प्रकार के योग का वर्णन हैं। स्थूल योग अणिमा आदि आठ प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाला है, जबकि सूक्ष्म योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि नामक आठ गुणों या अंगों से युक्त है, जिन्हें महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग कहकर योगसूत्र में सम्पादित किया है और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को उसका उपदेश देकर श्वास को साधने की कला का मर्म और महात्म्य सिखाया है।

यह योग शास्त्र, विज्ञान और धर्म तीनों है। इसके आठ चरणों में चौथा प्राणायाम श्वास साधने की ही विधि है, जिसका शाब्दिक अर्थ है प्राण का आयाम करना अर्थात् श्वास को लम्बा करना या प्राण रूपी जीवनीशक्ति को लम्बा करना। प्राणायाम का अर्थ श्वास को नियंत्रित करना या कम करना नहीं है बल्कि प्राण या श्वास का आयाम या विस्तार ही प्राणायाम कहलाता है। यह प्राणशक्ति का प्रवाह कर व्यक्ति को जीवन शक्ति प्रदान करता है

श्वास कितनी क़ीमती है, यह योग के प्रमुख ग्रन्थ हठयोगप्रदीपिका के इस सूत्र से समझा जा सकता है, जिसमें कहा है- ‘यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते। मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥ अर्थात् जब तक शरीर में वायु है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण या निकलना ही मरण है। अतः वायु का निरोध करना चाहिए। यानी उस पर नियंत्रण करना चाहिए। यही कारण है कि योग में साधक को नाड़ी शोधन, शीतली, उज्जायी, कपालभाती, भस्त्रिका, बाह्य और भ्रामरी आदि प्राणायाम विधियों के द्वारा श्वास पर नियंत्रण के गुर सिखाए जाते हैं।

आधुनिक विज्ञान प्रमाणित करता है कि गहरी सांस लेने से पेट, पीठ समेत शरीर की मांसपेशियां अनुकूल रहती हैं, जिससे मेरुदंड में होने वाले खिंचाव से बचा जा सकता है। इससे आप किसी भी तरह के शारीरिक या मानसिक श्रम के बावजूद तंद्रा या थकान का अनुभव नहीं करते, अपितु लम्बे समय तक नई ऊर्जा के साथ पुनः परिश्रम के लिए तत्पर हो सकते हैं। लम्बी गहरी श्वास लेने से पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन शरीर में जाती है, जो पाचन तंत्र के साथ समूचे तन-मन को ऊर्जा देती है और तनाव कम कर कार्यक्षमता में वृद्धि करती है। ठीक इसी तरह लम्बी गहरी श्वास छोड़ने से शरीर में प्रतिदिन पैदा होने वाले विषाक्त विकार बाहर निकल जाते हैं।

महापुराण श्रीमद्भागवत का एकादश स्कन्ध प्रमाण है कि श्रीकृष्ण के स्वधाम जाने से पूर्व जब उनके अनन्य सखा उद्धव उनसे उपदेश लेने गए तो कृष्ण ने श्वास का ही महामंत्र दिया था। कहा था, ‘सम आसन आसीन: समकायो यथासुखम्। हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षण:।। अर्थात् प्रिय उद्धव! जो न बहुत ऊंचा हो और न बहुत नीचा हो, ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं, हाथों को गोद में रख लें और दृष्टि अपनी नासिका पर जमाए।

फिर ‘प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकै:। विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रिय:।।’ पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक, इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियों का शोधन करें।

प्राणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाते चले और साथ ही इंद्रियों को जीतने का अभ्यास भी करें।

साधो! गुज़रे बरस ने हमें श्वास की साधना के प्रति ही चेताया है। जो श्वास न साध पाए, वे काल-कवलित हो गए। नए वर्ष का नया संकल्प यही होना चाहिए कि हम खानपान के मायाजाल में उलझने के बजाय श्वास के धर्म को साधें। यदि कलयुग में योग धर्म बन जाए तो पञ्चाङ्ग की गणना भले इस युग को कल अर्थात् मशीनों का युग पुकारती रहे, श्वास की कला में प्रवीण होकर हम अपने जीवन में तो सतयुग उतार ही लेंगे!



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