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टॉकिंग पाइंट:कभी शुरू, कभी बंद : कोरोना की वजह से अब भी दुविधा में है मनोरंजन की दुनिया


कुछ सप्ताह पहले हम सभी इस बात से खुश थे कि जीवन फिर से पटरी पर लौट रहा है और फिल्मों की शूटिंग दोबारा से शुरू हो गई है। हां, हममें से कई लोगों ने काम शुरू कर दिया है, लेकिन सच यह भी है कि अब भी जिंदगी सामान्य कामकाज से कोसों दूर है। जो सिनेमा हॉल पिछले महीने खुले थे, वे फिर से बंद होने लगे हैं, क्योंकि दर्शक अब भी सिनेमाघरों में फिल्म देखने से बचना चाहते हैं।


हर जगह बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बहुत ही नगण्य हुआ है, फिर चाहे वह बिहार जैसे छोटे क्षेत्र हों या फिर मुंबई और दिल्ली-उप्र जैसे कमाई वाले इलाके। ट्रेड एक्सपर्ट कोमल नाहटा के अनुसार पिछले चार सप्ताह के दौरान सिनेमाघर संचालकों (सिंगल और मल्टीप्लेक्स दोनों) की इतनी भी कमाई नहीं हुई कि उनके खर्च भी निकल सके। इसलिए संचालक अपने सिनेमाघरों को फिर से बंद करने जा रहे हैं, कब तक के लिए यह उन्हें भी नहीं मालूम। नाहटा को लगता है कि लोग सिनेमाघरों में तभीजाएंगे, जब उन्हें हर सप्ताह कोई न कोई नई फिल्म की रिलीज देखने को मिलेगी, लेकिन बड़े बैनर तब तक कोई फिल्म रिलीज करना नहीं चाहते जब तक कि पूरे भारत भर में सभी सिनेमाघर पूरी क्षमता के साथ नहीं खुल जाते। इसलिए स्थिति पेचीदा बनी हुई है और इसका समाधान तो केवल वक्त के हाथों में ही है।


संकट केवल फिल्म उद्योग तक ही सीमित नहीं है। टेलीविजन से जुड़ी एक हस्ती ने बताया कि सभी धारावाहिकों और अन्य मनोरंजन शो की टीअारपी में भारी गिरावट आई है। यहां तक कि "बिग बॉस' और "कौन बनेगा करोड़पति' जैसे बड़े रिएलिटी शो भी इस बार वैसा परफॉर्म नहीं कर पाए, जैसा हर बार करते हैं। इसकी वजह यही है कि एक बड़ा दर्शक समूह वेब सीरीज की ओर चला गया है। फिर आईपीएल मैचों का भी असर रहा।


इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कई टीवी चैनल्स अपने दर्शकों को लुभाने के लिए बड़े ही नए तरीके के कैम्पेन लेकर आए हैं। जी एंटरटेनमेंट ने विश्व टेलीविजन दिवस पर "टीवी परिवार है' नाम से एक कैम्पेन चलाया। इसमें टीवी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करके उसे परिवार का सदस्य बताया गया। हालांकि हकीकत तो यह है कि आज वेब सीरीज कई दर्शकों के लिए जुनून बन गई हैं। ओटीटी छोटी बजट की फिल्मों के लिए बड़े अच्छे प्लेटफॉर्म बन गए हैं। दक्षिण भारत की फिल्मों खासकर तेलुगू और तमिल की डबिंग फिल्में भी वहां खूब देखी जा रही हैं। इसका नतीजा यह निकल रहा है कि भाषाओं का अनुवाद कर कंटेंट दिखाने वाले स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स की भी भरमार हो रही है। उदाहरण के लिए डॉलीवुड प्ले में दक्षिण भारतीय और हॉलीवुड फिल्मों का हिंदी डब कंटेंट भरा पड़ा है। फिर अहा, सूरवरम, कैथी और चूजी जैसे प्लेटफॉर्म भी हैं। "होईचोई' बंगाली फिल्मों को इंग्लिश सब-टाइटल्स के साथ दिखाता है, तो ऑली प्लस ओड़िया भाषा में वीडियो, एलबम्स और फिल्में दिखाता है। सन-एनएक्सटी एक ऑन डिमांड सर्विस है जिसके करीब डेढ़ करोड़ यूजर्स हैं। यह दक्षिण भारत की चार भाषाओं में कंटेंट ऑफर करता है।


अब रंगमंच की बात कर लेते हैं। सिनेमा के लिए तो वैकल्पिक स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं, लेकिन रंगमंच वाले क्या करें। उनके लिए ऐसे कोई प्लेटफॉर्म नहीं हैं और इसीलिए उनके चेहरों पर बेचैनी साफ देखी जा सकती है। रंगमंच कलाकार मकरंद देशपांडे ने 1 दिसंबर को पृथ्वी थिएटर में गांधी पर हुए अपने नए नाटक के प्रीमियर के लिए मुझे आमंत्रित किया। उन्हांेने कहा कि वे अब और इंतजार नहीं कर सकते। और ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं हैं। खैर, प्रयोगात्मक रंगमंच खुल गया है, सुचित्रा कृष्णमूर्ति तो "ड्रामा क्वीन' कर रही हैं, लेकिन व्यावसायिक थिएटर्स को शायद अगले साल तक का इंतजार करना पड़ेगा।


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