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आखिर कब बदलेगी खेती और किसान को तबाह करने वाली कृषि शिक्षा?


कृषि शिक्षा में बड़े बदलाव की जरूरत

मोदी सरकार ने देश की शिक्षा नीति बदल दी है. लेकिन उस शिक्षा व्यवस्था में अब तक कोई मूलभूत बदलाव नहीं किया गया है जो खेती और किसानों को लगातार तबाह कर रही है. वो ऐसी शिक्षा है जिसमें खेती जहरीली हो रही है, खादों का अंधाधुंध जहर बोया जा रहा है और किसान (Farmer) इतना बदहाल है कि वो आत्महत्या तक करने पर विवश है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने वर्षों से कृषि शिक्षा को व्यवहारिक नहीं बनाया.


हमारी कृषि शिक्षा का ऐसा माइंडसेट है कि इसे पढ़ने वाले ज्यादातर लोगों की यही चाह रहती है कि उन्हें एक अदद नौकरी मिल जाए. वो खेती करने नहीं जाना चाहते. यह ऐसी शिक्षा है जिसमें कृषि वैज्ञानिक (Agriculture scientist) जब कोई रिसर्च प्रोजेक्ट करता है तो वह बहुत अच्छा दिखता है. लेकिन किसान के खेत में वह उतना असरदार नहीं रह जाता. इसलिए अब कृषि क्षेत्र से जुड़े लोग आवाज उठा रहे हैं कि इस शिक्षा में भी बड़ा बदलाव होना चाहिए.



पूसा इंस्टीट्यूट में सब्जियों की खेती पर रिसर्च

यूनाइटेड नेशन के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) में चीफ टेक्निकल एडवाइजर रहे प्रो. रामचेत चौधरी कहते हैं कि एक बार प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था ‘कृषि का पढ़ा-लिखा जब गांव जाता है तो सोचता है कि वो गंवारों को प्रशिक्षण दे  रहा हैं लेकिन ये भूल जाता है किसान को पीढ़ियों का अनुभव है.’ किसानों को लेकर हमारे वैज्ञानिक समुदाय का आज भी यही माइंडसेट है इसलिए वो खेती और किसानों से खुद को कनेक्ट नहीं कर पाते.


तीन बड़े बदलाव की वकालत


-प्रो. चौधरी के मुताबिक जर्मनी में जो स्टूडेंट कृषि से ग्रेजुएट होने जा रहा है उसे एक साल तक किसान के साथ रहकर खेती में अपना काम दिखाना होता है. इस तरह वो किताबी के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान भी सीख जाता है. किसान कसेंट देता है कि इस वैज्ञानिक को डिग्री दे दी जाए. तब जाकर उसकी पढ़ाई पूरी होती है.


सिर्फ लैब वाले कृषि वैज्ञानिक न बनाए जाएं


भारतीय कृषि शिक्षा में ऐसी सोच है ही नहीं. मैं केंद्र सरकार से मांग करता हूं कि खेती को बढ़ाना है तो आईसीएआर से कहकर फाइनल ईयर में एक साल तक वैज्ञानिकों को किसान के साथ रहने और उनसे सीखने का प्रावधान करवाया जाए. इससे उन्हें व्यवहारिक ज्ञान मिलेगा और वे यह समझ सकेंगे कि किसान किन दिक्कतों का सामना करते हैं. सिर्फ लैब वाले कृषि वैज्ञानिक न बनाए जाएं.


किसान के खेत में हो फाइनल टेस्टिंग


-जाने माने धान वैज्ञानिक प्रो. चौधरी कहते हैं कि भारत में जब कोई एग्री प्रोडक्ट या तकनीक मार्केट में जाती है तो उसकी फाइनल टेस्टिंग संभागीय कृषि प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन केंद्र में होती है. जबकि होना ये चाहिए कि इसके बाद देश के अलग-2 हिस्सों में कम से कम 500 जगहों पर उसकी टेस्टिंग किसान के खेतों में की जाए. किसान को अच्छा रिजल्ट मिले तब उसे फाइनल माना जाए. इस प्रक्रिया में रिसर्चर भी किसान के साथ पूरी फसल के दौरान उसके साथ रहे. इस तरह कृषि वैज्ञानिक लैब और क्लास से निकल कर खेत तक पहुंच जाएंगे.


स्कूलों में फिर शुरू हो कृषि मास्टर वाली व्यवस्था


-तीसरी जरूरत हाई स्कूल से ही कृषि को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करने की है. आजादी के बाद जूनियर हाई स्कूल में कृषि मास्टर होते थे. यह व्यवस्था 90 के दशक तक थी. अब इसे खत्म कर दिया गया है. इससे कृषि के प्रति युवाओं का मोहभंग हो रहा है. इसलिए कृषि मास्टर रखने वाली पुरानी व्यवस्था फिर से शुरू की जाए. हर स्कूल के लिए एक खेत अनिवार्य किया जाए, जिसमें बच्चों को खेती के बारे में बाताया जाए.



कृषि शिक्षा पर सवाल उठाते आंकड़े

आईसीएआर के काम पर बड़ा सवाल 


देश के 62 किसान संगठनों की संस्था राष्ट्रीय किसान महासंघ (Rashtriya Kisan Mahasangh) के संस्थापक सदस्य बीके आनंद ने कृषि शिक्षा को लेकर आईसीएआर पर गंभीर सवाल उठाए हैं.


आनंद ने कहा, मौजूदा कृषि शिक्षा, खेती का सही विकास करने में पूरी तरह से फेल है. खेती करने वाला व्यक्ति उस शिक्षा को समझ ही नहीं पाता. कभी भी कृषि रिसर्च किसान को जोड़ नहीं पाते. देश में आठ हजार कृषि वैज्ञानिक हैं. हर एक की सैलरी कम से कम सवा लाख रुपये है. इसका आउटपुट किसानों के लिए क्या है?


एक स्टूडेंट को कृषि वैज्ञानिक बनाने में करीब 42 हजार रुपये प्रतिमाह खर्च होता है और इसमें करीब 4 साल लगता है. क्या सरकार ने कभी सोचा कि जितना पैसा इन्हें मिल रहा है वो खेती और किसानों के लिए उतना रिजल्ट दे पा रहे हैं या नहीं?


भारत में 295 तरह के पेस्टिसाइड (कीटनाशक) हैं, ये सब के सब विदेशी हैं. हमारे वैज्ञानिकों ने नहीं बनाया है. जबकि रॉ मैटीरियल यहां पर्याप्त है. सवाल ये उठता है कि आईसीएआर के लोग कौन सा ऐसा शोध कर रहे हैं कि वो अब तक अपना पेस्टिसाइड तक नहीं बना पाए.


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