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आजादी के 73 साल बाद भी किसानों के लिए कर्ज बन रहा मर्ज खुशहाली के लिए अन्नदाता को चाहिए उसकी फसल का उचित दाम


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने ‘पूस की रात’ नामक कहानी करीब एक सदी पहले 1921 में लिखी थी. उस दौर में खेती और अन्नदाता के हालात को जानने, समझने के लिए यह एक अनूठी कहानी है. इस कहानी में किसानों (Farmers) की दो समस्याएं मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं. पहला कर्ज में डूबा किसान और दूसरा खेती (Farming) का लाभकारी न होना. इसके किरदार हल्कू की तरह देश का किसान आज भी कर्ज में डूबा है और आजादी के 73 साल बाद भी खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है. आज भी अन्नदाता की अधिकतम औसत आय सरकारी चपरासी से कम ही है.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के मुताबिक बीते दो दशक में (1995-2015) तक देश भर में 3,21,407 लाख किसान आत्महत्या (Farmer suicide) कर चुके हैं. यानी हर रोज 44 किसान निराश होकर मौत को गले लगा रहे हैं. कोई राज्य बाकी नहीं है जहां अन्नदाता जान न दे रहा हो. बावजूद इसके अब तक किसानों की खुशहाली के लिए सरकारें धरातल पर कुछ कर नहीं पाईं.

हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज


अब आत्मनिर्भर भारत की दौड़ में बड़ा सवाल यह है कि अन्नदाता के आत्मनिर्भर होने की बारी कब आएगी. क्योंकि आज भी वो कर्ज का कफन लेकर पैदा होता है. सरकार खुद मान रही है कि देश के हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है. जबकि हर किसान पर औसतन 12,130 रुपये का कर्ज साहूकारों का है. हमने ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसमें करीब 58 फीसदी अन्नदाता कर्जदार हैं.
एनएसएसओ (NSSO) के मुताबिक साहूकारों से सबसे ज्यादा 61,032 रुपये प्रति किसान औसत कर्ज आंध्र प्रदेश में है. दूसरे नंबर पर 56,362 रुपये औसत के साथ तेलंगाना है और तीसरे नंबर पर 30,921 रुपये के साथ राजस्थान है.

तो फिर सिर्फ विज्ञापनों में किसान कब तक खुशहाल रहेगा? उसे असल मायने में कर्ज से कब मुक्ति मिलेगी. हमारे नीति नियंता ऐसी स्थिति कब पैदा करेंगे कि उसे अच्छा दाम मिले और कर्ज लेने की नौबत ही न आए.


लोन न चुका पाने की वजह से आत्महत्या कर रहे किसान!

राष्ट्रीय किसान महासंघ के संस्थापक सदस्य बिनोद आनंद के मुताबिक 80 फीसदी किसान बैंक लोन न चुका पाने की वजह से आत्‍महत्‍या कर रहे हैं.

सरकार किसानों की कर्जमाफी के लिए जो बजट देती है उसका ज्‍यादातर हिस्‍सा कृषि कारोबार से जुड़े व्‍यापारियों को मिलता है, किसानों को नहीं. सरकार खुद भी फसल खराब होने, सूखे और कर्ज को किसानों की आत्‍महत्‍या का कारण मानती है. किसानों को वित्तीय साक्षर बनाने, योजनाओं की जानकारी लेने और बाजार की व्यवस्था का सदुपयोग करने के लिए कभी काम नहीं हुआ.

आजादी (India Independence) के 73 साल में किसानों को कर्ज में डुबोने वाली नीतियां बनती रहीं. उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए ज्यादा काम नहीं हुआ. नतीजा यह है कि कर्ज किसानों के लिए मर्ज बन रहा है और वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.

आप उचित दाम दे दो, किसान को कर्ज लेना ही नहीं पड़ेगा

यूनाइटेड नेशन के मुख्य सलाहकार पद से रिटायर प्रोफेसर व कृषि वैज्ञानिक रामचेत चौधरी कहते हैं कि मार्केट मिल जाए, उचित मूल्य मिले, प्रोडक्टिविटी बढ़ जाए और उत्पादन लागत कम हो तो किसान खुशहाल हो सकता है. लेकिन आजादी के बाद भी अब तक यह काम नहीं हो पाया है. सरकार हर साल कृषि कर्ज का टारगेट बढ़ा देती है, लेकिन उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए काम नहीं करती. क्या कभी उद्योगपति आत्महत्या करते हैं. नहीं न, क्योंकि उनका कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया जाता है. आज भी एमएसपी को किसानों का लीगल राइट बनाने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ रही है.


ओईसीडी (Organisation for Economic Co-operation and Development) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2016-17 के बीच भारत के किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम न मिलने के कारण करीब 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. इसलिए उचित दाम मिले तो उन्हें कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.


किसानों के साथ गलत व्यवहार करता है बैंकिंग सिस्टम

कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा के मुताबिक हमारा बैंकिंग सिस्टम एक तरफ जहां अक्सर गरीबों के साथ अमानवीय व्यवहार करता है, जिससे वे जेल जाने या आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं, वहीं अमीरों के साथ नरम व्यवहार करता है और आसानी से उन्हें बैंक को चूना लगाने का मौका दिया जाता है.

एक तरफ 40-50 हजार रुपये के लोन पर किसानों को जेल में डाल दिया जा रहा है, वे आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाते हैं तो दूसरी ओर करोड़ों रुपये डकारने वाले उद्योगपतियों पर कोई कार्रवाई नहीं होती. कर्ज न चुकाने पर जेल में डालने वाली एक नीति बननी चाहिए. अगर 50 हजार रुपये का कर्ज न चुका पाने पर किसान जेल जाता है तो उद्योगपति को भी जाना चाहिए.

किसान की आय चपरासी से कम क्यों?

आजादी के इतने साल बाद भी खेती-किसानी की इतनी ही तरक्की हुई है कि हमारे किसानों की औसत आय चपरासी से कम है. किसी राज्य में किसान की सबसे ज्यादा औसत 18,059 रुपये है, जबकि आज भी सरकारी कार्यालयों में चपरासी की सैलरी कम से कम 25 हजार रुपये मिलती है. लोकसभा में इसे लेकर सवाल भी पूछा जा चुका है.


किसानों को दाम-सम्मान दोनों दे रही सरकार: बीजेपी

हालांकि, बीजेपी (BJP) प्रवक्ता राजीव जेटली का कहना है कि मोदी सरकार का फोकस ही किसानों पर है. पहली बार किसानों को सीधे उनके बैंक अकाउंट में नगद सहायता दी जा रही है तो दूसरी ओर पहली बार उन्हें इसी सरकार में पद्मश्री पुरस्कार दिए गए हैं. इससे पहले कभी इस लायक उन्हें समझा ही नहीं गया. उनकी फसलों के उचित दाम के लिए लागत पर 50 फीसदी का मुनाफा दिया जा रहा है. किसानों के उत्पाद एक जगह से दूसरे शहर में आसानी से पहुंचें इसके लिए किसान रेल चलाई गई है. कोशिश यह है कि कृषि के साथ-साथ किसान का भी भला हो.


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