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शौकिया तौर पर चबाए जाने वाले पान के पत्ते में 'हाइपर थाइराइज्म' बीमारी की दवा छिपी हुई है


शौकिया तौर पर चबाए जाने वाले पान के पत्ते में 'हाइपर थाइराइज्म' बीमारी की दवा छिपी हुई है। इससे शरीर में बढ़े हुए थायराइड हारमोंस को नियंत्रित किया जा सकता है। इस शोध में पान के पत्तों के खास रसायन का चूहों पर नॉन क्लिनिकल ट्रायल किया गया, जो सफल रहा है। साइंस नेचर जरनल में भी इस शोध को प्रकाशित किया गया है। मानवीय शरीर पर इसके असर का अध्ययन बाकी है।


पुराने जमाने में मान्यता थी कि पान का पत्ता चबाने वाले आमतौर पर मोटे नहीं होते थे। शोध में यह बात सामने आई कि पान के पत्ते में मौजूद खास रसायन एपीसी यानी 'एलीप्रोकेटेकॉल' के कारण यह संभव है। क्या यह थ्योरी प्रायोगिक तौर पर सफल है? यह जानने के लिए देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लाइफ साइंस के वैज्ञानिक लगभग दो साल से इस पर शोध कर रहे हैं। इसके लिए भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (डीएसटी) से अनुदान मिला है। महिला वैज्ञानिकों की टीम डॉ.सुनंदा पंडा, मालबिका सिकदर, सागरिका बिस्वास ने इस दो साल लंबे चले इस शोध को अंजाम दिया। लाइफ साइंस के विभागाध्यक्ष प्रो.आनंद कर और दवा से जुड़े होने के कारण स्कूल ऑफ फॉर्मेसी के पूर्व हेड डॉ.राजेश शर्मा भी शोध में शामिल रहे।


 


दो रसायनों में से एक का दिखा असर


विभाग की प्रयोगशाला में पान के पत्ते के रस से निकाले गए दो प्रमुख रसायनों का चूहों पर प्रयोग किया गया। लगातार दो साल तक चले प्रयोगों की सफलता के बाद नॉन क्लिनिकल ट्रायल सफल करार दिया गया है। शोध को अंजाम देने वाली प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सुनंदा पंडा के मुताबिक, हम पान के पत्ते का 'मेटाबोलिज्म' यानी 'चयापचय' पर असर का कारण ढूंढ़ना चाह रहे थे। पान के पत्तों में दो प्रमुख रसायन 'एलीप्रोकेटेकॉल'(एपीसी) और 'केटेकॉल' पाया जाता है। यह आमतौर पर वैज्ञानिकों को पता है।


 


लेकिन यह पहला प्रयोग था जब इनका शरीर में पाई जाने वाली थायराइड ग्रंथि के असर पर शोध किया गया। केटेकॉल प्रयोग के दौरान उतना असरकारक नहीं पाया गया। लेकिन एपीसी के साथ चूहों पर प्रयोग किया गया तो साफ हो गया कि यह न केवल रसायन हाइपर थाइराइज्म की अवस्था में शरीर में थायराइड हार्मोन का स्तर कम कर देता है बल्कि लिवर को भी सुरक्षा देता है। इस आधार पर शोध टीम ने निष्कर्ष दिया कि कच्चे पान के पत्ते चबाने पर इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।


नेचर जरनल में भी हुआ प्रकाशन


 


चूहे के शरीर के साथ बाद में बीमारी से ग्रसित थायराइड ग्लैंड पर भी प्रयोग किया गया। लिवर, किडनी व अन्य पर इसका असर भी जांचा गया। नॉन क्लिनिकल ट्रायल के आधार पर नेचर जरनल प्रकाशन समूह ने 22 अगस्त को ऑनलाइन जरनल में इसे प्रकाशित किया। अब क्लिनिकल ट्रायल यानी पान के पत्ते के रसायन से दवा निर्माण की दिशा में प्रयोगों के लिए कदम बढ़ाने के लिए दवा कंपनियों से संपर्क किया जा रहा है।


मैसूर के पान के पत्ते पर प्रयोग


 


स्कूल ऑफ लाइफ साइंस में प्रयोग इंदौर के सामान्य बाजार में मिलने वाले मैसूर किस्म के पान के पत्ते से निकाले रस या सत्व से किया गया। प्रयोग करने वाली टीम के अनुसार इस किस्म के पान के कई किलो पत्तों को हर बार छांव में सूखाकर फिर पीसा गया। उसके बाद सत्व निकालकर वैज्ञानिक विधियों से शुद्ध कर इसका केमिकल बनाया गया। आखिरी में तय मात्रा में चूहों पर इसका प्रयोग किया गया। पान के पत्ते की किस्म हर बार एक सी हो इसलिए प्रयोग में शामिल हर पत्ते की किस्म का सत्यापन प्रदेश के डेढ़ सौ साल पुराने होलकर साइंस कॉलेज के बॉटनी के प्रोफेसर ए सेरवानी से करवाया गया


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