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पूर्वजों की वंश परम्परा के आगे बढ़ाने से ही सृष्टि चलती है और उसका यथोचित तरीके से संचालन होता है


 पूर्वजों की वंश परम्परा के आगे बढ़ाने से ही सृष्टि चलती है और उसका यथोचित तरीके से संचालन होता है। पितृपक्ष के सोलह दिनों में पितृों को श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं और उनको तृप्त करने के उपाय किए जाते हैं। पूर्वज अपने परिजनों को धन, समृद्धि और शक्ति का वरदान देते हैं। पौराणिक शास्त्रों में पितृपक्ष का महिमामयी गुणगान किया गया है।


पौराणिक शास्त्रों में है पितृपक्ष का वर्णन


ऋग्वेद की एक ऋचा में यम तथा वरुण का उल्लेख करते हुए पितृों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है। ऋग्वेद के द्वितीय छंद में कहा गया है कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। ऋग्वेद में अग्नि से अनुरोध किया गया है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुंचाने में सहायता करे और वंशजों के दान को पितृों तक पहुंचाए। सायण में बताया गया है कि श्रोत संस्कार संपन्न करने वाले पितृ प्रथम श्रेणी में, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितृ द्वितीय श्रेणी में और इनसे भिन्न कर्म करने वाले पितृ अंतिम श्रेणी में रखे जाने चाहिए।


 


ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख कर बताया गया है कि अग्नि की सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित रहते हैं और पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की कामना के साथ पिंडदान देते हैं और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितृों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के नजदीक आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके अपराधों से अप्रसन्न न हों।


संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों में है श्राद्ध का वर्णन


 


संहिताओं और ब्राह्मणों की बहुत सी पंक्तियों में मृत्यु के बारे में विस्तार से बताया गया है। पहला जन्म सामान्य जन्म है। पिता की मृत्यु के बाद पुत्र में ओर पुत्र के बाद पौत्र में जीवन की जो निरंतरता बनी रहती है उसको दूसरे प्रकार का जन्म माना गाया है। मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म तीसरे प्रकार का जन्म है। कौशीतकी में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन किया गया है जो मृत्यु के बाद चंद्रलोक में जाते हैं और अपने कर्मो और ज्ञान के अनुसार वर्षा के माध्यम से धरती पर कीट पशु, पक्षी अथवा मानव रूप में जन्म लेते हैं। अन्य देवयान द्वारा अग्निलोक में चले जाते हैं।


छांदोग्य के अनुसार ज्ञान का उपार्जन करने वाले सौम्य व्यक्ति देहवसान के बाद देवयान द्वारा ब्राह्मण पद प्राप्त करते हैं। पूजापाठ एवं जनउपयोगी काम करने वाले दूसरी श्रेणी के व्यक्ति आकाश मार्ग से होते हुए फिर से धरती पर लौट आते हैं और इसी नक्षत्र में जन्म लेते हैं।


 


स्मृतियों एवं पुराणों में भी पितृर्पण के हेतु श्राद्धसंस्कारों की महत्ता का महिमामंडन किया गया है। मृत्यु के बाद पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान करने का प्रावधान है। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नए शरीर को धारण करती है।


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