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पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान पितरों को उनकी पसंद के मिष्ठान्न समर्पित किए जाते हैं। पितृों को तृप्त करने के लिए विभिन्न सामग्री अर्पित की जाती है


सनातन संस्कृति में पितृों के प्रति आदरभाव अनादिकाल से चली आ रही परंपरा का हिस्सा है। इसलिए सनातन परंपरा में संयुक्त परिवार की कल्पना कर उसको साकार किया गया। परिवार में एक-दूसरे के प्रति आदरभाव, सम्मान और घनिष्ठता का ताना-बाना बुना गया, ताकि परिवार एक डोर में बंधकर जीवन के मूल्यों को नजदीक से समझे। अपने परिजनों के प्रति आदरभाव और सम्मान की इस परंपरा को मृत्योपरांत भी कायम रखा गया है और इसके लिए श्राद्ध और तर्पण जैसे क्रियाकर्मों का प्रावधान किया गया है।


पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान पितरों को उनकी पसंद के मिष्ठान्न समर्पित किए जाते हैं। पितृों को तृप्त करने के लिए विभिन्न सामग्री अर्पित की जाती है। लेकिन धरती पर पितृों को समर्पित की गई वस्तुएं पितृों को आखिर मिलती कैसे है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इंसान के कर्मों के अनुसार उसकी मृत्यु के बाद उसकी गतियां भी अलग-अलग होती है। मानव को प्रेत, हाथी, पशु आदि योनी प्राप्त होती है। इस तरह से मानव द्वारा बनाए गए छोटे-छोटे से पिंडों के जरिए पितृों को तृप्ति मिलती है।


 


इस संबंध में स्कंद पुराण में एक कथा का वर्णन है, जिसमें राजा करंधम भगवान महाकाल से पूछते हैं कि मानव पितृों को जो तर्पण या पिंडदान करता है, वह सभी वस्तुएं तो पृथ्वी पर ही रह जाती है फिर पितरों के पास आखिर कैसे पहुंचती है और धरती पर पितृों को समर्पित की सामग्री से पितृ कैसे तृप्त होते हैं?


महाकाल ने बताया था इसका विधान


 


भूतभावन महाकाल ने बताया कि यह विधि का विधान है कि पृथ्वी पर समर्पित की गई सामग्री पितृों के पास पहुंचती है। इस प्रक्रिया के अधिपति अग्निष्वात है। मान्यता है कि पितृ और देवता दोनों दूर से ही आपकी आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। पितृ धरती पर किए गए कर्मकांड को स्वीकार कर लेते हैं और पृथ्वीलोक पर की गई स्तुतियों से प्रसन्न हो जाते हैं।


महादेव ने कहा कि पितृ भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान रखते हैं और सभी जगहों पर पहुंच सकते हैं। पितृों का शरीर नौ तत्वों से मिलकर बना होता है। इसमें 10 वें तत्व के रूप में श्रीहरी निवासरत रहते हैं। इसलिए देवता और पितृ गंध और रसतत्व से तृप्त होते हैं और स्पर्श को स्वीकार करते हैं और पवित्रता से प्रसन्न होकर परिजनों को वर प्रदान करते हैं।


 


जिस तरह से मानव का आहार अन्न है, उसी तरह से पितृों का आहार गंध और रस है। इसलिए वो अन्न और जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं और बाकी वस्तुएं धरती पर रह जाती है।


ऐसे पहुंचता है पितरों तक आहार


 


पितृों के वंशज नाम और गोत्र को बोलकर अन्न, जल, मिष्ठान्न पूर्वजों को समर्पित करते हैं। विश्वदेव और अग्निष्वात पितृों को समर्पित किया गया आहार पितृों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितृों को देवयोनी प्राप्त हुई है तो समर्पित किया गया अन्न उनको अमृत के रूप में प्राप्त होता है। यदि गंधर्व योनी को प्राप्त हुए हैं तो अन्न उनको भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पितृ पशु योनी में है तो अन्न उनको तृण रूप में प्राप्त होता है। इस तरह नाग योनि में आहार वायु रूप से, यक्ष योनि में आहार पान के रूप से, राक्षस योनि में आहार आमिष रूप में, दानव योनि में आहार मांस रूप में, प्रेत योनि में आहार रुधिर रूप में और मानव योनी में होने पर भोगने लायक पदार्थों के रुप में पितृों को प्राप्ति होती है।


इस तरह से नाम, गोत्र और आपकी पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, देशकाल आदि के जरिए दिए गए पदार्थ मंत्र पितृों के पास पहुंचा देते हैं। कई योनियों को पार करने के बाद भी परिजनों के द्वारा लगाया गया भोग पितृ तक पहुंच जाता है


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