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भाव-स्वभाव:आप ख़ुशी चाहते हैं या प्रसन्नता! ख़ुशी के लिए दूसरों ज़रूरत है लेकिन प्रसन्नता अकेले भी मिल सकती है

  • ख़ुशी आती है और चली जाती है, प्रसन्नता मन में घर कर जाती है। प्रसन्नता पाने के लिए पैसे-कौड़ी ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं पड़ती न ही यह पद-प्रसिद्धि पर निर्भर है। इसलिए, प्रसन्नता के भाव को अपना स्वभाव बना लीजिए।

मनुष्य भावनाओं और भाव से जीने वाला प्राणी है। भाव स्थायी होते हैं, पर भावनाएं अस्थायी होती हैं। अच्छी भावना को हम स्थायी करना चाहते हैं, जैसे ख़ुशी। सभी चाहते हैं कि हम सदा ख़ुश रहें। पर ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। ख़ुशी से मिलता-जुलता एक शब्द है– प्रसन्नता। कई शब्दकोश इन्हें समानार्थी बताते हैं और आमतौर पर हम इनका एक ही अर्थ में प्रयोग करते हैं, जबकि इनके बीच वैसा ही अंतर है जैसा लक्ष्य व उद्देश्य में होता है।

ख़ुशी एक भावना है और प्रसन्नता एक भाव है। ख़ुशी से अधिक पुष्ट व गहरा स्थायी भाव है प्रसन्नता। जैसे, आपको भूख लगी है और आप स्वादिष्ट भोजन करते हैं तो आपको ख़ुशी मिलती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर आप किसी भूखे को भोजन कराते हैं तब भी आपको ख़ुशी मिलती है लेकिन जो भाव आप में पैदा होता है वह प्रसन्नता है।

ख़ुशी अस्थायी, क्षणभंगुर होती है जबकि प्रसन्नता स्थायी। व्यक्ति, वस्तु या उपलब्धि के मिलते ही हम ख़ुशी का अगला पैमाना तय कर देते हैं, जबकि प्रसन्नता किसी से जुड़ी नहीं है इसलिए सदैव बनी रह सकती होती है। इसीलिए प्रसन्नता का पुनर्स्मरण किया जा सकता है – जब भी आपको प्रसन्नता महसूस हो, उस पल को कभी भी भविष्य में याद करेंगे तो ठीक वैसा ही महसूस करेंगे जैसा वो पहले महसूस किया गया था क्योंकि इसका सम्बंध किसी वस्तु या लक्ष्य से नहीं था।

ख़ुशी भौतिक पदार्थ के मिलने से सम्बंधित है। मसलन, आपको अपनी पसंद का कोई उपहार मिल जाए तो ख़ुशी होती है। जैसे, कोई सोचता है कि उसे मोबाइल मिल जाए या मोटरसाइकल मिल जाए तो उसे ख़ुशी मिल जाएगी। कोई सोचता है कि उसका कोई लेख किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए तो ख़ुशी होगी लेकिन जैसे ही ये सब हमें मिल जाते हैं तुरंत ख़ुशी कम होने लग जाती है।ख़ुशी फल से जुड़ी है जबकि प्रसन्नता का सम्बंध प्रक्रिया से है। लेख का छपना एक फल है जबकि उसे लिखना ही अपने आप में ऐसी संतोषजनक प्रक्रिया है जो कि महसूस करने पर प्रसन्नता का भाव देता है। ख़ुशी बांटने के लिए दूसरों की ज़रूरत है जबकि प्रसन्नता एकांत में भी अनुभव की जा सकती है। ख़ुशी को ‘सेलिब्रेट’ किया जाता है, इसके लिए दूसरों की आवश्यकता होती है जबकि प्रसन्नता वह भाव है जिसे अकेले में भी महसूस किया जा सकता है।

प्रसन्नता को जीवन में कैसे लाएं

प्रसन्नता के भाव को अपने जीवन में स्पष्ट रूप से प्रकट करने के लिए ये दृष्टिकोण अपनाने चाहिए-

नि:स्वार्थ कर्म के अभ्यास से

हमारे सभी कर्मों में हमारा ‘अहम्’ केंद्र में होता है इसलिए हमारे कर्म स्वार्थ से भरे होते हैं। यही कारण है कि कर्म करते समय हमें प्रसन्नता का अनुभव नहीं हो पाता है। नि:स्वार्थ कर्म के लिए स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि हमें प्रत्येक कर्म की प्रेरक इच्छा का पता लगाना चाहिए और उसमें से स्वार्थ को पहचानकर त्यागना चाहिए। उदाहरण के लिए, आप अपने शहर के उस पार्क में जाइए, जहां आपको कोई न जानता हो और न पहचानता हो या उस समय जाएं जब वहां कोई न हो। आप वहां घास काटिए, पानी दीजिए, कचरा एकत्र कीजिए, उसके बाद आप वापस आ जाइए। तब आपको अंतस में जो महसूस होगा, वही प्रसन्नता का भाव है। सप्ताह में एक बार इस तरह के कार्य ज़रूर कीजिए जिसमें आपकी पहचान न हो पाए।

कृतज्ञता जताकर

जीवन में जो भी हमें मिला हुआ है उसके प्रति हम आमतौर पर कभी भी धन्यवाद के भाव से, अहोभाव से नहीं भरते हैं। इसके विपरीत जो नहीं मिला है, उसकी शिकायत करते रहते हैं। इसलिए मन में एक रोष, असंतुष्टता का भाव रहता है। ऐसे में प्रसन्नता के उस स्थायी भाव से हम वंचित हो जाते हैं। इसके लिए कृतज्ञता का रोज़ अभ्यास करना चाहिए, इसे ही प्रार्थना बना लेनी चाहिए। एक डायरी में हर दिन वो तीन बातें लिखें कि आज आप किसके लिए व क्यों कृतज्ञ हैं और उस व्यक्ति या वस्तु विशेष के लिए खुलकर आभार व्यक्त करें। इससे हर पल प्रसन्न रहने का एक मौलिक कारण मिलेगा।

दूसरों की मदद करके

दलाई लामा ‘आनंद का सरल मार्ग’ पुस्तक में बताते हैं कि मदद करने के लिए हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, इसकी शुरुआत घर व कार्यस्थल से भी जा सकती है। इंग्लैंड में हुए एक शोध में यह सामने आया है कि मदद करने का असर स्वास्थ्य और प्रसन्नता पर पड़ता है। छोटी-छोटी मदद करने से अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इसके अवसर दिन में कई बार मिलते रहते हैं। मदद का प्रस्ताव रखने से भी प्रसन्नता महसूस होती है। घर के कामों में मदद करने से पारिवारिक रिश्तों में गहराइयां भी बढ़ती हैं।

प्रशंसा की कला सीखकर

आज के समय में प्रशंसा को नकारात्मक ढंग से लिया जाता है, इसे चापलूसी से जोड़ दिया गया है। अधिकतर मामलों में हम प्रशंसा करने से बचते हैं और ख़ुद की प्रशंसा में भी अपने आप को अलग रखने का प्रयास करते हैं। हालांकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, दूसरों की वास्तविक प्रशंसा करने से हम ख़ुद को खुला हुआ महसूस करते हैं और ऐसे अच्छे गुणों के लिए स्वयं को प्रेरित भी करते हैं। अपनी प्रशंसा को भी स्वीकार करना चाहिए और जिस कार्य के लिए प्रशंसा की जा रही हो, उसे आपने कैसे किया, यह उस समय सभी के साथ साझा करना चाहिए। इससे प्रसन्नता का भाव गहरा होता है।

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