Header Ads Widget

Responsive Advertisement

शिवमय है संसार की लय:पशुपतिनाथ ने प्रत्येक त्याज्य वस्तु को अपनाया और उन्हें पूज्य प्रतीक बनाया, शिव-प्रतीकों में जीवन के गूढ़ रहस्य समाए हैं

जब भी कुछ अप्रिय सुनने-देखने में आता है, तो मुंह से अनायास निकलता है- शिव, शिव, शिव। दुनिया में जितना आलोक है वह शिव है और जहां उसमें कमी आती दिखती-सुनाई देती है तो उस अनुपम आलोक की याद स्वतः हो आती है। हर कमी को शिव ही पूर्ण करते हैं, क्योंकि यह परम सत्ता शिव की ही अनुगामिनी है। तभी तो वे विष का भी वरण कर नीलकंठ कहलाते हैं। इसलिए कहते हैं कि इस संसार में कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसे हल नहीं किया जा सकता क्योंकि सारा भार तो शिव ने अपने ऊपर ले रखा है। बाहर से देखने पर कोई भी समस्या बहुत बड़ी लगती है, लेकिन जब उससे दो-चार होते हैं तो लगता है इससे निपटना कोई बड़ी बात नहीं। यह शिव तत्व ही है जो हमारे अंदर के साहस को जाग्रत करता है, विश्वास को प्रगाढ़ करता है। शिव मूलतः संस्कृत का शब्द है जिसका एक अर्थ है समस्त परेशानियों, समस्याओं का नाश करने वाले। वेदों, उपनिषदों में शिव नाम की अलग-अलग व्याख्याएं हैं लेकिन मंतव्य एक ही है।

विकल्पों के विकल्प हैं शिव

भारतीय अध्यात्म में परम सत्ता तक पहुंचने के लिए कई मार्ग हैं। जो रुचिकर लगे, उस पर चल सकते हैं। धर्मग्रंथों का भी यही मत है कि जितने लोग होंगे उतने मन होंगे और उतने ही विकल्प। अर्थात विकल्पों की भरमार।

शिव इन सब विकल्पों के विकल्प हैं। जहां सबसे कम नियम-क़ायदे हों वहीं शिव हैं। वे भस्म धारण करते हैं जो प्रतीक है इस संसार की क्षणभंगुरता का। वे धतूरे और बिल्वपत्र को धारण करते हैं जो प्रतीक है कि जीवन में जो भी कांटे आएं उन्हें शिव को समर्पण करने से ही आपकी राह के कांटे दूर हो जाते हैं। बिल्व पत्र के तीन पात हमारे तीन गुण- सत्व, रजस और तमस को दर्शाते हैं। थोड़ा-सा रजस इसलिए कि हम कार्य कर सकें, थोड़ा तमस इसलिए कि हम सही तरह से सो पाएं और सत्व इसलिए कि यही जीवन का आधार है। इसलिए बिल्व के तीन पत्तों में बीच वाला सत्व का पत्ता शेष दोनों पत्तों से बड़ा होता है। शिव पूजा में फल इसलिए कि जो हम चाहते हैं वह फलित हो, फूल इसलिए कि हम उनकी तरह खिलें और जल इसलिए कि जल की दो प्रमुख विशेषताएं हमारे भीतर आएं। पहली संघर्ष की- क्योंकि जल पहाड़, ऊबड़-खाबड़ रास्ते में भी अपनी राह बना लेता है और दूसरी है विनम्रता का भाव, यानी जल परिस्थिति के अनुसार उसी रूप में ढल जाता है, जिस पात्र में डालो उसी के अनुकूल हो जाता है।

शून्य के शिखर पर शिव

शिव को शून्य से जोड़ना भी बहुत ही वैज्ञानिक है। जहां कुछ भी नहीं है वहां शिव यानी आकाश तत्व है। शून्य को प्राप्त कर लेने वाला ब्रह्मज्ञानी हो जाता है। शून्य में ही लगता है कि वह स्वयं ही सृष्टि है। यदि इस सृष्टि को अपने भीतर एक क्षण के लिए भी बसाना है, तो शून्य होना होगा। सिर्फ़ शून्यता ही सब कुछ अपने भीतर समा सकती है। जो शून्य नहीं, वो सबकुछ अपने भीतर नहीं समा सकता। जिस प्रकार एक बर्तन में समुद्र नहीं समा सकता, लेकिन हमारा ग्रह समुद्र को समा सकता है। परंतु इस ग्रह में सौरमंडल नहीं समा सकता। सौरमंडल में ग्रह और सूर्य आ सकते हैं, पर शेष आकाशगंगा इसमें नहीं आ सकती। अगर इस तरह क़दम-दर-कदम आगे बढ़ें, तो अंतत: पाएंगे कि सिर्फ़ शून्यता ही हर चीज़ को अपने भीतर समा सकती है। और जो सबसे बड़ा शून्य है वही शिव तत्व है जिसके तहत सब कुछ आता है। ‘शिव’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है- ‘शेते सर्व जगत् यस्मिन् इति शिव’ अर्थात जिसमें समस्त जगत शयन कर रहा है, वही शिव है।

शिवजी भस्म क्यों लगाते हैं?

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में भगवान शिव ने भस्म शब्द का अर्थ प्रकट किया है। जिस प्रकार राजा अपने राज्य में `सारभूत कर (टैक्स) को ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य (अनाज, पौधे आदि से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं) आदि को जलाकर (पकाकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थों के सार को ग्रहण करके देह का पोषण करता है, उसी प्रकार शिव ने इस विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप में उसके सारतत्व को ग्रहण किया है। इसे दग्ध करके शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर पर लगाया है। उन्होंने भस्म के बहाने जगत के सार को ही ग्रहण किया है।

शिवलिंग की आधी परिक्रमा क्यों?

भारतीय संस्कृति में जल को देवता माना गया है और पानी के पात्र को कभी पांव नहीं लगाया जाता। ठोकर लगा पानी न पिया और न ही पिलाया जाता है। यह पाप माना गया है। ऐसे ही जो जल देवप्रतिमा पर चढ़ाया गया हो, उसे लांघा नहीं जाता। शिवलिंग का नित्य अभिषेक होता है। जिस जल से देवता का अभिषेक हुआ है उसे पांव नहीं लगे इसलिए प्रणाल (जल निकासी की नाली) के बाद भी चंडमुख की व्यवस्था मंदिरों में की गई। इसलिए भगवान शिव की पूजा के बाद शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बायीं ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी स्रोत (जहां से भगवान शिव को चढ़ाया जल बाहर निकलता है) तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौट दूसरे सिरे तक आकर पूरी करनी चाहिए। इसे शिवलिंग की आधी परिक्रमा भी कहा जाता है। जलाधारी या अरघा के स्रोत को लांघना नहीं चाहिए, क्योंकि उस स्थान पर ऊर्जा और शक्ति का भंडार होता है।

-डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, भारतविद् और पुराविशेषज्ञ

शिव-प्रतीकों में जीवन-दर्शन

शिव का एक-एक भाग इस संपूर्ण संसार की सबसे सरल अभिव्यक्ति है। शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं जो आकाश तत्व से बना है। यह अनंत है और इसका विस्तार अनंत है। जो सबको धारण करता है, अच्छा, बुरा सबकुछ। शिव के जटाजूट पर चंद्रमा है जो प्रतीक है शीतलता का, मन का। सारा खेल मन ही करता है इसलिए मन संतुलित शिव के माध्यम से ही हो सकता है। शिव त्रिनेत्रधारी हैं जो कि प्रतीक है कि दो आंखें तो सिर्फ़ संसार को देखने के लिए हैं, वहीं तीसरा नेत्र ज्ञान और प्रज्ञा के लिए है। सर्पहार को वरण करना शिव की चैतन्य, सतर्क अवस्था को दर्शाता है, जहां ध्यान अवस्था तुरीय अवस्था को अभिव्यक्त करती है। त्रिशूल प्रतीक है भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक धाराओं का और साथ ही साथ शक्ति का भी। डमरू उस अनहद नाद का द्योतक है जिसकी आकांक्षा सभी को रहती है। शिव के नंदी चार पैर वाले होकर धर्म, अर्थ और मोक्ष के प्रतीक होने के साथ-साथ अनंत प्रतीक्षा व धैर्य के संप्रतीक हैं। नंदी भक्ति के उस रूप का दर्शन करवाते हैं जिसमें भक्त अपने ईश्वर से मिलने को तो आतुर है लेकिन अपनी सीमाओं में। इसी का प्रमाण है कि ध्यानस्थ शिव को कोई भी संदेश पहुंचाना हो तो नंदी सर्वश्रेष्ठ माध्यम हैं। इसलिए शिव से पहले नंदी के चरण छुए जाते हैं और उनके कानों में मनोकामना कही जाती है। शिव भय, क्रोध, अहंकार को हर लेते हैं।

यही हमारी भगवान शिव से कामना है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ