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अपना कर्म बहुत अच्छी तरह करते रहें, लेकिन ये न सोचें कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं

 कहानी - श्रीकृष्ण भोजन करने बैठे थे। रुक्मिणी जी ने 56 भोग की थाली सजा दी थी और श्रीकृष्ण को भोजन करा रही थीं। रुक्मिणी जी ने कहा, 'आप बहुत व्यस्त रहते हैं, हमेशा अपने भक्तों के लिए दौड़ते रहते हैं, कभी किसी को कुछ काम आ जाता है तो आप दौड़ जाते हैं। आज बैठे हैं तो आराम भोजन करें, हमने सारी व्यवस्थाएं कर दी हैं।'

श्रीकृष्ण बोले, 'आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं, आज मैं शांति से भोजन करूंगा।'

भगवान रोटी खाने के लिए हाथ मुंह के पास लाए ही थे कि उन्हें कुछ ध्यान आया। वे रुक गए और रोटी का टुकड़ा फिर से थाली में रख दिया और खड़े हो गए। उन्होंने रुक्मिणी से कहा, 'मैं अभी आता हूं।'

रुक्मिणी ने कहा, 'अब आप खाना छोड़कर कहां जा रहे हैं?'

श्रीकृष्ण बोले, 'मेरा एक भक्त है, बहुत डूबकर मेरी भक्ति करता है। वह औघड़ जैसा रहता है तो लोग उसे पागल कहते हैं। कभी कोई उसे मार देता है, लेकिन आज तो अति हो गई है। लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। वह मेरा ही नाम ले रहा है तो मुझे उसकी मदद के लिए जाना पड़ेगा।'

श्रीकृष्ण दो कदम आगे बढ़े ही थे और रुक गए, वे फिर से रुक्मिणी जी के पास आ गए। रुक्मिणी जी ने पूछा, 'आप तो लौट आए। क्या हुआ आप भक्त की मदद के लिए नहीं जा रहे हैं?'

श्रीकृष्ण बोले, 'बस अब वहां मेरी जरूरत नहीं है, क्योंकि मेरे भक्त ने भी पत्थर उठा लिया है। अब वह भी पलटकर जवाब दे रहा है। चलो भोजन करते हैं।'

सीख - इस कथा का संदेश ये है कि जब हम भगवान पर पूरा भरोसा करते हैं तो भगवान की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह हमारी सुरक्षा करें, लेकिन जब हम खुद को श्रेष्ठ मानकर अहंकार वश काम करने लगते हैं तो भगवान मदद नहीं करते हैं। इसका ये मतलब नहीं है कि हमें कर्म नहीं करना है, हमें कर्म करना है, लेकिन क्रोध और अहंकार न करें, जो कुछ हमें मिला है, उसे भगवान की कृपा मानें, खुद पर घमंड न करें।

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