1958 में जब माइक्रोचिप्स का आविष्कार हुआ तब उनकी सबसे अधिक मांग परमाणु मिसाइलों के लिए थी। आज एक साल में लगभग एक खरब चिप्स बनाई जाती हैं। सेमीकंडक्टर वाले डिवाइस और मशीनों की संख्या बढ़ रही है। आज चिप्स का बाजार 32 लाख करोड़ रुपए सालाना से अधिक है। इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। इस माह चिप्स की कमी से दुनियाभर में कारों का उत्पादन ठप पड़ गया था। किसी अन्य इंडस्ट्री का प्रभाव इतना ज्यादा विस्फोटक नहीं है। अमेरिका ने कई साल से चीन को चिप के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है। चीन हर साल 21 लाख करोड़ रुपए की चिप्स का आयात करता है। अब उसने चिप निर्माण की दिशा में निर्णायक कदम बढ़ाए हैं। इससे आगे जाकर विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है।
चिप इंडस्ट्री में हो रहे बदलाव का प्रभाव दुनिया की राजनीतिक स्थिति पर पड़ेगा। इनके निर्माण में अमेरिका पिछड़ रहा है। चिप का प्रोडक्शन पूर्व एशिया में केंद्रित हो रहा है। चिप निर्माण में सर्वोच्चता के लिए 60 साल से चल रहा संघर्ष खत्म होने को है। 2000 में इस इंडस्ट्री में 25 कंपनियां थीं। ये अब तीन रह गई हैं। सबसे प्रमुख इंटेल मुश्किल में है। इस वजह से केवल दो कंपनियां मैदान में रह जाएंगी-दक्षिण कोरिया की सैमसंग और ताइवान की टीएसएमसी। उधर, हुवावे के खिलाफ अमेरिका के प्रतिबंध ने लगभग 60 कंपनियों को प्रभावित किया है। 2020 में टीएसएमसी की चीनी कंपनियों को बिक्री में 72% गिरावट आई है। इसलिए चीन ने चिप निर्माण में तेजी से आत्मनिर्भर होने के लिए सरकारी मशीनरी को सक्रिय किया है। सरकार सात लाख करोड़ रुपए से अधिक पैसा खर्च कर रही है। पिछले साल 50 हजार से अधिक कंपनियों ने चिप से संबंधित कारोबार के लिए रजिस्ट्रेशन कराया है। बड़े विश्वविद्यालयों ने चिप पर रिसर्च तेज की है।
चीन के मैदान में आने से अमेरिका उसकी बढ़त को प्रभावित करने के लिए प्रतिबंध और अधिक कड़े कर सकता है। दक्षिण कोरिया, ताइवान की कंपनियां कीमतें बढ़ा सकती हैं। पहले ही दुनिया की 20 % से अधिक चिप्स ताइवान में बनती हैं। वहीं चीन ताइवान को अपना हिस्सा बताता है। उसने ताइवान पर हमले की धमकी दे रखी है। इस स्थिति में चिप इंडस्ट्री 21 वीं सदी में शीत युद्ध का कारण बन सकती है।
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